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आँसू मरन्द का गिरना, मिलना निःश्वास पवन मे।" इसके बाद उन्होंने 'करुणा कटाक्ष की कोर तक पांच छन्द और सुनाये । गाकर बनारसी धुन मे ही सुनाये थे इसलिए इन छः छन्दो मे पर्याप्त समय लग गया क्योंकि शुक्ल जी ने कुछ मुग्धता और कुछ शिष्टाचारवश प्रत्येक छन्द की दो-दो बार आवृत्तियां कराई थी। आरती का समय हो गया था। सब लोग उठ खड़े हुए। आरती हो जाने पर फलाहार की व्यवस्था थी, और फिर सब ने वह जम कर खाया कि बूटी का तेज और निखर गया। खा चुकने पर शुक्ल जी और मुच्छन चले गये और नौ बजे रात तक शेष व्यक्तियो के कविता-पाठ ने अंतरंग गोष्ठी का रूप बनाये रखा। __बाबू साहब ने फिर 'आँसू के अगले चार छन्द सुनाये और मधुरेण समापयेन' जैसे उनके मधुर काव्य-पाठ से बनारसी बैठक का समापन हुआ। सब लोग अपनेअपने घर जाने को उठ खड़े हुए। एक दिन विनोद से पता चला कि कल सायंकाल के समय बाबू साहब दुकान पर नही आये थे। नौकर कहता था कि जी ठीक नही है। 'निराला' जी ने उन दिनो विनोद की मानमन्दिर वाली कोठी के बड़े कमरे मे लगभग डेढ़ महीने से धरना दे रखा था। विनोद के साथ भाग भी छानते थे और बोतल भी खोल लेते थे। विनोद उनसे आये दिन किच-किच करते रहते थे क्योंकि विनोद शाकाहारी थे और 'निराला' आमिष भोजी। उनसे मासाहार के बिना नही रहा जाता था और स्वयंपाकी भी ऐसे थे कि दूसरे के हाथ के पकाये हुए मास को रोग के कीटाणुओं से युक्त समझते थे। इसलिए विनोद को चिढाने के लिए कमरा बन्द करके उन्ही के घर पर पकाते थे। निराला भोजन करके उठे ही थे कि विनोद ने कमरे मे प्रवेश किया । मैं उनके साथ था। कुछ देर बातचीत हुई और हम तीनो बाबू साहब को देखने के लिए चल पड़े जान पडता था कि निराला भोजन के साथ दारू का सेवन भी भरपूर कर चुके थे। रास्ते भर चलते लोगो पर गिरते पडते एक्के तक पहुंचे। विनोद बोले, "देखो, सूर्यकान्त, बाबू साहब के सामने ई सब लफड़ापना न करना। वह हमारे पूज्य हैं, गुरू हैं ।" निराला बोले, "अब हम ठीक है। हमारी चिन्ता न करो। तुम्हारे पूज्य हैं, तो पहले हमारे पूज्य है।" वास्तव में निराला ने अपने वचन का पालन किया हम लोग आधे घंटे से ऊपर बाबू साहब की प्रतीक्षा करते रहे। इस बीच में निराला पूर्ण स्वस्थ हो चुके थे। बाबू साहब पास के कमरे मे जरदे के पान की निजी देखरेख में व्यस्त थे। व्याव १२८ : प्रसाद वाङ्मय