फोटो मांगी जाती। उनके संग्रह में बचपन के कई चित्र थे, प्रौढ़ावस्था के भी कई चित्र थे, किन्तु प्रकासन के उपयुक्त उनका कोई चित्र नहीं था। मेरे आग्रह पर उन्होंने अपना चित्र खिंचवाया। बहुत प्रयत्न करने पर भी उनकी कोई स्वाभाविक फोटो नहीं उतर पाई। फोटो खींचते समय आकृति ऐसी हो जाती जो बनावटी मालूम पड़ती। चित्र खिचवाते समय वे स्वयं गड़बड़ा जाते थे। यही कारण है कि उनका कोई भी चित्र विशेष आकर्षक नही बन सका। प्रसाद की आँखों में स्वाभाविक लालिमा थी। बातचीत में वे बड़े ही सरस थे। दूसरों की कहानी बड़े चाव से सुनते; छेड़-छेड़कर जो कहने लायक न होती, उसे भी सुन लेते। मीठी चुटकियों से गुदगुदा देते। लेकिन अपने पते की बात कभी भूलकर भी न कहते । 'लहर' की इस पंक्ति में उनके स्वभाव की यही गोप्यता है-"क्या यह अच्छा नहीं कि औरों की सुनता मैं मौन रहूं ?" प्रसादजी से अलग हुए एक युग बीत गया। किन्तु आज भी उनकी मुस्कराती हुई आकृति सामने खड़ी है। प्रसाद से परिचित सभी लोग जानते थे कि पत्र का उत्तर देने में वे बहुत शिथिल शे . सका प्रमुख कारण मैं यही ममझता हूँ कि अपनी महानता और अपने पत्रों के महत्व को वे भलीभांति समझते थे । इसीलिए पत्र-व्यवहार में अपने विचारों को अपनी लेखनी से वे प्रकट नही करना चाहते थे। व्यवसाय सम्बन्धी जितने पत्र आते, उनका उत्तर वे प्रतिदिन स्वयं लिखते या कर्मचारी से लिखा देते थे; किन्तु साहित्यिक पत्रों पर विशेष ध्यान नहीं देते थे। ऐसे पत्रों का उत्तर मैं ही दिया करता था। पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ भी मैं ही भेजा करता था। मैं उनके जीवन और साहित्य के सम्बन्ध में आवश्यक सामग्री एकत्रित कर रहा था। उन्होंने अपने सभी पत्रों को मुझे दे दिया था। आरम्भ से जितने पत्र उनके पास आये थे, व्यक्तित्व और महत्व के अनुसार मैंने सबका क्रम लगा दिया था । मनोमालिन्य होने पर भी इस संग्रह को उन्होंने मुझसे वापस नहीं मांगा था। बीमारी के अन्तिम दिनों में, एक बार बातचीत के मिलसिले में उन पत्रों के सम्बन्ध में उन्होंने पूछ।। मैंने अपने मन में समझा कि सम्भवतः उन पत्रों को वे अपने पास ही रखना चाहते हों ! अतएव मैंने कहा-पत्रों का क्रम लगा चुका हूं; किसी दिन सब लेता आऊँगा । वे चुप थे, इसलिए मेरा विश्वास दृढ़ हो गया। मैंने जीवन भर प्रसाद से कोई वस्तु नही मांगी थी, अतएव उसे भी वापस कर देना उचित समझकर मैं उस संग्रह को उनके सपने ले गया। उन्हें सब दिखला और समझाकर मैंने कहा-अब इसे आप अपने यहां सुरक्षित रखें । मैं चला आया। उसके कई दिनों बाद नौकर ने दो पुस्तकें लाकर मुझे दी। यह संस्मरण पर्व : १५९
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