हाथियों का झुण्ड का झुण्ड फिल्म में अपनी रंगत दिखाता। किन्तु, प्रसादजी का स्वास्थ्य तेजी से गिर रहा था-उपन्यास पूरा न हो सका। १९३६ ई० की सावनी तीज को भाई मैथिलीशरण ने अपने जीवन के पचास वर्ष पूरे किए । इस अवसर पर प्रसादजी ने अपनी एक नई रचना 'इन्द्रजाल' कहानी- संग्रह गुप्तजी को बहुत ही ममत्व और स्नेहपूर्वक समर्पित करके प्रकाशित कराई। उसकी प्रति पाकर गुप्तजी ने जो धन्यवाद का पत्र लिखा उसमें अतिरिक्त विनय और कृतज्ञता ज्ञापन तो था किन्तु प्रीतिमय वाक्य भी न था। प्रीति के अपेक्षित प्रसादजी को उधर से मात्र रीति निभाने वाला आभार ही प्राप्त हुआ। इससे वह बहुत आहत हुए। उन्होंने कहा कि कितने भाव मे जो भेंट चढ़ाई गई उसकी प्रसाद को यह प्रसादी मिली। इस पंचाशत-पूत्ति के उपलक्ष में आचार्य केशवजी के विशिष्ट शिष्य स्व० पद्मनारायण आचार्य एक धूमधामी अभिनन्दनोत्सव की तैयारी कर रहे थे। तैयारी जन्मदिन से कही पहले आरम्भ हो गई थी। 'मैथिलीमान' नामक एक हस्तलिखित अभिनन्दनग्रन्थ तैयार किया जाना आरम्भ हुआ जिसे विजयादशमी के दिन विश्व- वन्ध वापू मे गुगनी को प्रदान करना निश्चित हुआ था। किन्तु विजयादशमी से सत्रह दिन पहले एक शोकपूर्ण घटना हो गई--कथा-सम्राट मुंशी प्रेमचन्द का अवसान । एक उदीमान कथाकार जो मुंशीजी को अपना गुरू मानते थे और अपने को उनका कुटुम्बी मुंशीजी के अवसान के कुछ पहले काशी आकर उनकी सुश्रूषा में रहते थे। उन महोदय ने राय दी कि प्रेमचन्दजी ने जो कुछ लिखा है वह राष्ट्र की सम्पत्ति है अतएव उनकी समस्त रचनाओं का एक ट्रस्ट बन जाना चाहिए। शोकातुरशिवरानी देवी और व्यावहारिकता से अनभिज्ञ उनके दोनों पुत्रों को इस समय उन्होंने अपने अनुकूल बना लिया था। संवेदना के लिए भाई मैथिलीशरण भी आए थे। पद्यपि प्रसादजी का और उनका बहुतेरी बातों पर मतभेद रहता तथापि इस समय वे दोनों महारथी एक हो गए और ट्रस्ट का जोरदार विरोध किया। उनका एक ही मुख्य सवाल था-यदि ट्रस्ट हो गया तो इन मासूम लड़कों का क्या होगा। इस दलील का उन कथाकार महोदय के पास कोई उत्तर न था। पद्मनारायणजी का समारोह विजयादशमी के कई दिन पहले से आरम्भ हो गया 1-जिसमें ऐसे ऐसे कार्यक्रम रखे गए जिनका साहित्य से कोई सम्बन्ध न था। प्रसादजी यह सारा तमाशा देखकर मोतीचन्द से बार-बार कहते–'डाक्टर, मैं तो कुछ न बोलूंगा, अगर जबान खोली तो उसका दूसरा ही अर्थ लगाया जायगा, किन्तु देखो यह क्या हो रहा है। जिस विजयादशमी के दिन (२५-१०-३६) राष्ट्रकवि को बापू ने अभिनन्दन ग्रन्थ प्रदान किया उस अवसर पर कुछ काव्य-पाठ भी हुए। कृष्णानन्दजी प्रसादजी को संस्मरण पर्व : १८९
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