पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५०२

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निरालाजी के मन में प्रसादजी के प्रति अत्यधिक आदरभाव था और वे उन्हें अपना अग्रज मानते थे। प्रसादजी के प्रति निराला का यह आदर-भरव, उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। ___ उन दिनों काशी एक साहित्यिक तीर्थ जैसी थी। आचार्य प्रवर श्यामसुन्दर दास, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, आचार्य केशव प्रसाद मिश्र, डॉ० सम्पूर्णानन्द, कलामर्मज्ञ एवं मनीषी राय कृष्णदास, उपन्यास सम्राट् मुशी प्रेमचंद, पं० विनोदशंकर व्यास, हरिऔधजी, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी प्रभृति अनेक साहित्यिक विभूतियां उस समय काशी में विद्यमान थी। राष्ट्रकवि स्व० मैथिलीशरण गुप्त प्रायः वहाँ आते रहते थे और राय कृष्णदास जी के गंगा तट पर स्थित भवन मे ठहरते थे। प्रकाशन की दृष्टि से भी १९३६ ई० का वर्ष आधुनिक हिन्दी साहित्य के इतिहास में अविस्मरणीय है। 'कामायनी', 'गीतिका' 'राम की शक्ति पूजा', 'गोदान', निरुपमा आदि अनेक श्रेष्ठ रचनाएँ इसी वर्ष प्रकाशित हुई थी। मैं सौभाग्यशाली हूँ कि ऐसे महत्वपूर्ण वर्ष मे मुझे काशी में रहने तथा हिन्दी के श्रेष्ठ साहित्यकारों के सान्निध्य का सुअवसर सुलभ हुआ था। ____ इन्ही दिनों बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' जी भी काशी आये और रायकृष्णदास के आवास पर ही ठहरे। एक दिन जब प्रसादजी राय साहब की कोठी पर आये, तो सब लोगों ने प्रसादजी से अनुरोध किया कि वे अपने यहां की प्रसिद्ध कचौड़ियां खिलाएँ । प्रसादजी ने हंसते हुए कहा-'कचौड़ियाँ ही क्यो ? कल, आप सब लोगों का मेरे यहां भोजन होगा।' यह निमंत्रण पा हम लोगों को बड़ी खुशी हुई। ___दूसरा दिन आया और मैं बडी उत्सुकता से संध्या की प्रतीक्षा करने लगा। साँझ होते ही निरालाजी, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी, वाचस्पति पाठक तथा मुझे साथ ले प्रसादजी के यहां पहुंच गये । उनकी कोठी के सामने एक प्रशस्त चबुतरा था जिस पर, जहां तक मुझे याद है, प्रस्तर के आसन बने हुए थे। उस दिन उन पर आस्तरण बिछा दिये गये थे। वह भाद्रपद की बड़ी ही सुहावनी संध्या थी, आकाश मे अधिक बादल नही थे। कुछ मेघखण्ड, संभवतः परिहास की इच्छा से, इधर-उधर विचर रहे थे। प्रसादजी एक प्रस्तर आसन्दी पर विराजमान थे। उनके पास वाली आसन्दी पर उनके एक संज्ञीतज्ञ मित्र बैठे थे, जिनके पार्श्व मे एक सितार रखा हुआ था। धीरे-धीरे अन्य लोग भी आने लगे। रायकृष्णदास जी के साथ मैथिलीशरण गुप्त और बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' आये। जहां तक मुझे याद, है, मुशी अजमेरी जी भी जो राष्ट्रकवि गुप्तजी के साथ चिरगांव से आये थे, उस भोज में शरीक थे। कुछ क्षणों मे आचार्य शुक्ल, आचार्य केशव प्रसाद मिश्र, डॉ. जगन्नाथ प्रसाद शर्मा और विनोद शंकर व्यास भी वहां आ गये। इनके अतिरिक्त काशी के और भी कई १९८: प्रसाद वाङ्मय