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पृष्ठ:प्रसाद वाङ्मय रचनावली खंड 5.djvu/५२

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बैठे। क्षत्रियगण राजदण्ड को बहुत भारी तथा अस्त्र-शस्त्रों को हिंसक समझ कर उनकी जगह जप-चक्र हाथ में रखने लगे। वैश्य लोग भी व्यापार आदि में मनोयोग न देकर धर्माचार्य की पदवी को सरल समझने लगे । और तो क्या भारत के प्राचीन दास भी अन्य देशों से आयी हुई जातियों के साथ मिल कर दस्यु-वृत्ति करने लगे। (भारतीय महाजाति के पराभव के प्रथम आवर्त की यह चित्र-भूमि है । सं०) वैदिक धर्म पर क्रमशः बहुत-से आघात हुए, जिनसे वह जर्जर हो गया। कहा जाता है कि उस समय धर्म की रक्षा करने में तत्पर ब्राह्मणों ने अर्बुदगिरि पर एक महान् यज्ञ करना आरम्भ किया और उस यज्ञ का प्रधान उद्देश्य वर्णाश्रम धर्म तथा वेद की रक्षा करना था। चारों ओर से दल-के-दल क्षत्रियगण-- जिनका युद्ध ही आमोद था-जुटने लगे और वे ब्राह्मण धर्म को मानकर अपने आचार्यो को पूर्ववत् सम्मानित करने लगे। जिन जातियों को अपने कुल की क्रमागत वंशमर्यादा भूल गयी थी, वे तपस्वी और पवित्र ब्राह्मणों के यज्ञ से संस्कृत होकर चार जातियों में विभाजित हुई। इनका नाम अग्निकुल हुआ। सम्भवतः इसी समय में तक्षक या नागवंशी भी क्षत्रियों की एक श्रेणी में गिने जाने लगे। यह धर्म-क्रान्ति भारतवर्ष में उस समय हुई थी जब जैन तीर्थकर पार्श्वनाथ हुए, जिनका समय ईसा से ८०० वर्ष पहले माना जाता है । जैन लोगों के मत से भी इस समय में विशेष अन्तर नहीं है । ईसा के आठ सौ पूर्व यह बड़ी घटना भारतवर्ष में हुई, जिसने भारतवर्ष में राजपूत जाति बनाने में बड़ी सहायता दी और समय-समय पर उन्ही राजपूत क्षत्रियों ने बड़े-बड़े कार्य किये। उन राजपूतों की चार जातियों में प्रमुख परमार जाति थी और जहां तक इतिहास पता देता है- उन लोगों ने भारत के भिन्न-भिन्न प्रदेशों में फैलकर नवीन जनपद और अक्षय कीर्ति उपाजित की। धीरे-धीरे भारत के श्रेष्ठ गजन्यवर्गों में उनकी गणना होने लगी। यद्यपि इस कुल की भिन्न-भिन्न पैतीस शाखाएँ है, पर सब में प्रधान और लोक-विश्रुत मौर्य नाम की शाखा हुई । भारत का शृंखलाबद्ध इतिहास नही है, पर बौद्धों के बहुत-से शासन-सम्बन्धी लेख और उनकी धर्म-पुस्तकों से हमे बहुत सहायता मिलेगी, क्योंकि उस धर्म को उन्नति के शिखर पर पहुंचाने वाला उसी मौर्य-वंश का सम्राट अशोक हुआ है । बौद्धों के विवरण से ज्ञात होता है, कि शैशुनाक-वंशी महानन्द के संकर-पुत्र महापद्म के पुत्र धननन्द से मगध का सिंहासन लेने वाला चन्द्रगुप्त मोरियों के नगर का राजकुमार था । यह मोरियों का नगर पिप्पली-कानन था, और पिप्पली- कानन के मौर्य-नृपति लोग भी बुद्ध के शरीर-भस्म के भाग लेने वालों में एक थे। मौर्य लोगों की उस समय भारत मे कोई दूमरी राजधानी न थी। यद्यपि इस बात का पता नहीं चलता, कि इस वंश के आदि पुरुषों में से किसने पिप्पली-कानन में मौर्यो की पहली राजधानी स्थापित की, पर यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि ईसा से ५०० ५२: प्रसाद वाङ्मय