पर मकान बने हुए हैं। जिस पहाड़ी पर मान्धाता है उस
पर, गॉव से कुछ दूर, घना जङ्गल है। उस जङ्गल के
भीतर प्राचीन इमारतों के चिह्न दूर-दूर तक पाये जाते हैं।
कौस्यन्स साहब ने मध्य-प्रदेश की प्राचीन इमारतों पर एक
पुस्तक लिखी है। उसमे उन्होने अपनी राय दी है कि किसी
समय, इस पहाडी पर, मान्धाता की वर्तमान बस्ती से बहुत
बड़ी बस्ती थी।
नर्मदा का बड़ा माहात्म्य है। गङ्गा से उतरकर नर्मदा ही का नम्बर है। अनेक साधु-संन्यासी नर्मदा की प्रदक्षिणा करते हैं। भड़ौच के पास नर्मदा समुद्र मे गिरी है। वहीं से ये लोग नर्मदा के किनारे-किनारे अमरकण्टक तक चले जाते हैं और फिर वहाँ से ये दूसरे किनारे से भड़ौंच को लौट जाते हैं। इस प्रदक्षिणा में कोई तीन वर्ष लगते है। मान्धाता में प्रदक्षिणा करनेवाले इन साधुओं की बड़ी भीड़ रहती है। जाते भी ये वहाँ ठहरते हैं और लौटते भी।
नर्मदा के बीच मे जो टापू है वह भी पर्वतप्राय है। उस
पर अनेक फाटकों, मन्दिरो, मठो और मकानों के निशान हैं।
दो-एक मन्दिरों को छोड़कर शेष सब इमारते उजड़ी और आधी
उजड़ी हुई दशा में पड़ी है। कही-कही पर किले की दीवार
के भी चिह्न हैं। मान्धाता के वर्तमान नगर से यह उजाड़
नगर बिलकुल अलग है। इसमे एक-आध विशाल मन्दिर
और मकान अब तक बने हुए हैं, और वे देखने लायक हैं।