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तृतीय सर्ग

जगत मे यक पुत्र विना कही।
विलटता सुर - वांछित राज्य है।
अधिक संतति है इतनी कही।
वसन भोजन दुर्लभ है जहाँ ॥७२॥

कलप के कितने वसुयाम भी।
सुअन - आनन हैं न विलोकते।
विपुलता निज सतति की कही।
विकल है करती मनु जात को ॥७३।।

सुअन का वदनांवुज देख के।
पुलकते कितने जन हैं सदा ।
बिलखते कितने मब काल है।
सुत मुखावुज देख मलीनता ।।७४।।

सुखित हैं कितनी जननी सदा ।
निज निरापद संतति देख के।
दुखित है मुझ सी कितनी प्रभो।
नित विलोक स्वसतति आपदा ।।७।।

प्रभु, कभी भवदीय विधान मे।
तनिक अन्तर हो सकता नहीं।
यह निवेदन सादर नाथ से।
तदपि है करती तव सेविका ।।७६।।

यदि कभी प्रभु - दृष्टि कृपामयी।
पतित हो सकती महि - मध्य हो।
इस घड़ी उसकी अधिकारिणी ।
मुझ अभागिन तुल्य न अन्य है ॥७७।।