पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/१५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
८९
अष्टम सर्ग

जब सुव्यंजक भाव विचित्र के ।
निकलते मुख - प्रस्फुट शब्द थे ।
तब कढ़े अधरायुधि से कई ।
जननि को मिलत वर रत्न थे ॥३०॥

अधर साध्य सु-व्योम समान थे ।
दसन थे युगतारक से लसे ।
मृदु हँसी वर ज्योति समान थी ।
जननि मानस को अभिनन्दिनी ।।३१।।

विमल चन्द विनिन्दक माधुरी ।
विकच चारिज की कमनीयता ।
बदन में जननी बलवीर के ।
निरवती बहु विश्व विभूति थी ॥३२॥

मन्दाकान्ता छन्द
मैंने आॅखों यह सब महा मोद नन्दागना का ।
देखा है भी सहस मुख से भाग को है सराहा ।
छा जाती थी बदन पर जो हर्ष की कान्त लाली ।
सो आॅखों को प्रकथ रस से सिचिता थी बनाती ॥३३॥

हां! मैं ऐसी प्रमुद-प्रतिमा मोद-आन्दोलिता को ।
जो पाती हैं मलिन-पदना शोक में मज्जिता सी ।
तो है मेरा हृदय मलता वारि है नेत्र लाता ।
दावा सी हैं ढ़ाक उठत्ती गात-गेमावली में ॥३४॥

जो प्यार का बदन लख के स्वर्ग - सम्पत्ति पाती ।
लूटे लेनी सकल निधियों श्यामली - मूर्ति देखे ।
हा! सो नारे सवनिताल में देखती हैं अंधेरा ।
थोड़ी आशा मालक जिनमे हे नही दृष्टि आती ॥३५॥