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पृष्ठ:प्रियप्रवास.djvu/२५

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( २० )

सत्त सहस नष सिष सरस सकल आदि मुनि दिप्य ।
घट बढ़ मत कोऊ पढौ मोहि दूसन न वसिष्य ।।

चन्द की रचना में तो प्राकृत शब्द मिलते भी है, वरन् कही कही अधिकता से मिलते है, किन्तु महाकवि चन्द. के पश्चात् के जितने कवियो की कविताये मिलती है उनमे प्राकृत भाषा के शब्दो का व्यवहार बिल्कुल नहीं पाया जाता । कारण इसका यह है कि इस समय प्राकृत भाषा का व्यवहार उठ गया था और हिन्दी का राज्य हो गया था। इस काल की रचना मे अधिकांश हिन्दी-शब्द ही पाये जाते है, हिन्दी शब्द के साथ आते है तो संस्कृत के शब्द आते है, प्राकृत के शब्द बिल्कुल नहीं आते । महात्मा तुलसीदास, भक्तवर सूरदास और कविवर केशवदास की रचना मे तो कहीं कही हिन्दी-शब्दो से भी अधिक संस्कृत शब्दो का प्रयोग हुआ है।

पहले आप इन तीनो महोदयो के प्रथम की रचनाओ को देखिये——

तरवर से एक तिरिया उतरी उसने बहुत रिझाया ।
बाप का उसके नाम जो पूछा आधा, नाम बताया ।।

 
सर्व सलोना सब गुन नीका । वा बिन सब जग लागे फीका ॥
वाके सिर पर होवे कोन । ए सखि साजन? ना सखि लोन ।। सिगरी रैन मोहि सँग जागा । भोर भया तो बिछुरन लागा ।। वाके बिछुरत फाटत हीया । ए सखि साजन? ना सखि दीया ।।

——अमीर खुसरो


क्या पढियै क्या गुनियै । क्या वेद पुराना सुनियै ।।
पढे' सुने क्या होई । जो सहज न मिलियो सोई ।।
हरि का नाम न जपसि गॅवारा । क्या । सोचै बारम्बारा ।।
अँधियारे दीपक चहिवै, । इक वस्तु अगोचर लयैि ।।
वस्तु अगोचर पाई । घट दीपक रह्यो समाई ।।
कह कबीर अब जाना । जब जाना तो मन माना ।।