छन्द के नियम में बँध जाने से ऐसी अवस्था प्राय उपस्थित हो जाती है, कि जब उसमे शब्दो को तोड़-मरोड़ कर रखना पड़ता है, या उसमें कुछ ऐसे शब्द सुविधा के लिये रख देने पड़ते हैं, जो गद्य में व्यवहृत नहीं होते। यह हो सकता है कि जो शब्द तोड़ या मरोड़ कर रखना पड़े वह, या गद्य में अव्यवहत शब्द कविता में से निकाल दिया जावे, परन्तु ऐसा करने में बड़ी भारी कठिनता का सामना करना पड़ता है; और कभी-कभी तो यह दशा हो जाती है कि ऐसे शब्दो के स्थान पर दश शब्द रखने से भी काम नहीं चलता । इस लिये कवि उन शब्दो को कविता में रखने के लिये वाध्य होता है। कभी-कभी ऐसा होता है कि उन शब्दो के पर्यायवाची दूसरे शब्द उसी भाषा में मौजूद होते हैं,
और यदि वे शब्द उन शब्दो के स्थान पर रख दिये जावे, तो किसी शब्द को विकलांग बना कर या गद्य में अव्यवहृत शब्द रखने के दोष से कवि मुक्त हो सकता है, परन्तु लाख चेष्टा करने पर भी कवि को समय पर वे शब्द स्मरण नहीं आते, और वह विकलांग अथवा गद्य में अव्यवहृत शब्द रख कर ही काम चलाता है। और यही कारण है कि गद्य की भाषा से पद्य की भाषा में कुछ अन्तर होता है । कवि-कर्म बहुत ही दुरूह है। जब कवि किसी कविता का एक चरण निर्माण करने में तन्मय होता है, तो उस समय उसको बहुत ही दुर्गम और संकीर्ण मार्ग में होकर चलना पड़ता है। प्रथम तो छन्द की गिनी हुई मात्रा अथवा गिने हुए वर्ण उसका हाथ पॉव बॉध देते है, उसकी क्या मजाल कि वह उसमे से एक मात्रा घटा या बढा देवे, अथवा एक गुरु को लघु के स्थान पर या एक गुरु के स्थान पर एक लघु को रख देवे। यदि वह ऐसा करे तो वह छंद-रचना का अधिकारी नहीं। जो इस विषय में सतर्क हो कर वह आगे बढ़ा, तो हृदय के भावो
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