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तृतीय सर्ग

द्रुतविलम्बित छन्द
यह प्रलोभन है न कृपानिधे ।
यह अकोर प्रदान न है प्रभो ।
वरन है यह कातर - चित्त की ,
परम - शान्तिमयी - अवतारणा ॥४८॥

कलुप - नाशिनि दुष्ट - निकंदिनी ।
जगत की जननी भव-वल्लभे ।
जननि के जिय की सकला व्यथा ।
जननि ही जिय है कुछ जानता ।।४९।।

अवनि मे ललना जन जन्म को ।
विफल है करती अनपत्यता ।
सहज जीवन को उसके सदा ।
वह सकटक है करती नहीं ।।५०।।

उपजती पर जो उर - व्याधि है ।
सतत संतति संकट - शोच से ।
वह सकंटक ही करती नहीं ।
वरन जीवन है करती वृथा ॥५१।।

बहुत चिन्तित थी पद - सेविका ।
प्रथम भी यक सतति के लिये ।
पर निरन्तर सतति - कष्ट से ।
हृदय है अव जर्जर हो रहा ।।५२।।

जननि जो उपजी उर मे दया ।
जरठता अवलोक - स्वदास की ।
बन गई यदि मै वडभागिनी ।
तव कृपावल पा कर पुत्र को ॥५३॥