मूल-दै दधि, दीनो उधार हो केशव, दानी कहा जब मोल ले हैं।
दीन्हें बिना तो गई जु गई, न गई न गई घर ही फिर जैहैं।
गा हित बैरु कियो. हित हो कब, बैरु किये बरु नाके ही हैं ।
बैर कै गोरस बेचहुगी, अहो बेच्यो न बेच्यो तो ढारि न दैहैं ।३१
नोट-इसमें कृष्ण और गोपी का सवाल जवाब है, अर्थ यो है ।
भावार्थ-कृष्ण-हम को दही दो।
गोपी-उधार तो हम दे चुकी, ( उधार न दूंगी, नगद दाम
देकर ले सकते हो)
कृष्ण-तो हम दानी कैसे जो मोल लेकर खाये हम जगात
में लेते हैं। अगर न देगी तो मथुरै जा चुकी बिना
दिये हम आगे न जाने न देंगे।
गोपी-मै अधुरै गई तो क्या न गई तो क्या, लो घर लौटी
जाती हूं।
कृष्ण-ऐसा करने से तो आज से हमारा तेरा प्रेम गया
और तू ने हमसे मानो बैर कर लिया।
गोपी-मुझसे तुमसे प्रेम था कब, सुम से बैर कर के आराम
ही से रहूंगी।
कृष्ण हम से बैर करके तू गोरस बेच सकेगी?
गोपीन बेच सकू तो नहीं सही,ढार सो न दूंगी अर्थात्
न विक सकैगा तो खुद खाऊँगी पर तुम्हें देना तो
लुइका देने के बराबर है-व्यर्थ है-अतः तुम्हें न
न दूंगी।
(विवेचन)-इस कवित्त में यद्यपि कृष्ण और गोपी छालंबन
विभाव से प्रतीत होते हैं, पर अनुझाव और संचारी न
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तीसरा प्रभाव