पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/११७

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दौरी सुरभी खुलि बिपिन ओर।
भाजे बछरे बहु कियो सोर॥१६६॥
इतने मैं जसुदा गई आय।
लीने कंचन थारी सजाय॥१६७॥
माखन मिसिरी मेवा सँवारि।
पकवान सलोनो संग धारि॥१६८॥
हँसि कह्यो कलेऊ करहु आइ।
तब लाल चरावन जाहु गाइ॥१६९॥
चलि आये सँग मिलि दोउ भाय।
रोटी माखन सँग नेक खाय॥१७०॥
माधव बनाय मुख कही बात।
बासीहू रोटी कोऊ खात॥१७१॥
जान्यो तेरो घटि गयो प्यार।
तू ढूँढ़ि कोऊ सुत अब गवाँर॥१७२॥
जो बासी रोटी सकै खाय।
मैं ढढ़ाैं कोऊ और माय॥१७३॥
जानत जो मैं यह तेरो ढंग।
भाजतो तबै अक्रूर संग॥१७४॥
हँसि बोली जसुदा अरे लाल।
तू ही नै कीनो मुहि बेहाल॥१७५॥
कल कही जो तूने विकट बात।
मेरी विलखत ही बिती रात॥१७६॥
भोरहुँ लौँ व्याकुलता बढ़ाय।
तू दियो सकल वृज बुधि विलाय॥१७७॥
माखन रोटी किहि सकी सूझि।
यह तौ विचार निज हिये बूझि॥१७८॥
मेवा पकवानहि कछू खाय।
जल पीकर गवने दोऊ भाय॥१७९॥