पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/१२९

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सहि सकत है अलिभार अलि नहिं पै कबहुँ गजराज को।
लरि लाल मंजुल जानि सकिहें कबहुँ बहरी बाज सों॥३३॥
सुनि कहति दूजी वीर तू का बकति यों बौरी भई।
विधि सबै विधि विरची अनोखी सृष्टि यह अचरज मई॥
छिन मैं जरावत महा वन परि अग्नि चिनगारी तनी।
सहसन सहत घन चोट फूटत पै न हीरन की कनी॥३४॥
चूरत महा गिरि शिखर परि विद्युत किरिचरंचक अली।
कोगी हनत अति सहज ही बनराज केहरि अति बली।
बसि सदा सागर जलावत वाडवानल देखियै।
जे तेजबंत न तिन्हें लघु आकार लखि लघु लेखियै॥३५॥
तैसे न इन बालकन बालक निपट जानहु बावरी।
केशी अरिष्ट अघासुरन गज हन्यो जिन वनि केहरी॥
पय पियत नास्यो पूतना वक व्योम वत्सासुर हन्यो।
धेनुक, शकट, शट वृणावर्त सँहारि अजित अहै बन्यो॥३६॥
जिन कह पठायो कंस नै इन मारिबे के काज ही।
ते मरे इनके हाथ तिनको देखु बल किन आज ही।
कालीय नाग कराल नाथ्यो नृत्य तिहि फन पर कियो।
नास्यो पुरन्दर विधि गरब सुनि कंस को काँप्यो हियो॥३७॥
मारयो सुदर्शन शंख चूड़हि पान दावानल कियो।
भंज्यो जमल अर्जुन करहिं पर धारि गोवर्धन लियो॥
कोउ कहति संसय कछू नहिं देवी कही सो है सही।
नृप कंस को जो काल जायो देवकी सो है यही॥३८॥
याके करन सों बचि सकत नहिं आज कैसहु कंस है।
जगदीस ऐ सोई करै वह नृपति निपट नृशंस है।
कोऊ कहति धनि है यशोमति इन्हें गोद खिलावती।
सुत जानि कै निज पालती औ अमित मोद मनावती॥३९॥
आनन्द की सीमा रही कँह आज लौं नँदराइ के।
जो चन्द सों मुख चूमतो इनको सदा उर लाइ के।