पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२४१

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- २१० - हेम पतौअन सों लदि के, लतिका इक फैलि रही छबि छाई। देखियै तो घन प्रेम नहीं पैं, खिले जुग कंज प्रसून सुहाई। हैं फल बिम्ब मैं दाडिम बीज, यह कैसी अपूरबताई। दई यह पीन। भरो जल सुन्दर रूप अनूप, सरीरहि है सर स्वच्छ नवीन। मृणाल भुजा त्रिबली है तरंग, तथा चकवाक पयोधर सजे घनप्रेम भरी रमनी सिर, वार सवार सिवार अहीन। अहो यह नाचत हैं मुख पैं दृग, ज्यों इक वारिज पैं जुग मीन ।। मुख न हेरहु व्यर्थ कोऊ उपमा, मन मैं न मसूसहु मानि अयान । सुनो धनप्रेम प्रवीन नवीन, गिरा मन मोहिनी पै धरि ध्यान। दोऊ दृग बान धरे मुख मंडल, भूषित भौंहन को कलतान। मनो अलकावलि राहु विलोकत, मारत चन्द चढ़ाय कमान ।। प्रभात जम्हात उठी अंगिराय, उठाय दोऊ दोऊ कर पुँज उदोति । मिली जुग पंजन की अंगुरी भुज, मध्य उगी मुख की जगि जोति ॥ रसै बरसै रमनी घनप्रेम, सुधा सुखमा की बनी मनो सोति।