पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२४३

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- २१२ सर सुन्दरता मुख माधुरी बारि, खिले दृग कंज बिराजत हैं॥ दुरे दृग चूंघट की पट ओट सों, चोट कियो करें लाखन धूल। लिये जुग भौंहन की घन प्रेम, दिखाय रहे तरवार अतूल। भला मतवारे महा जुलमीन, नवीन उपद्रव के नित मूल। तिन्हें धनु अंजन रेख में हाय, दई दै दई वरुनी सत सूल। समूहन देखिये बिरह सीर उसास मसूसनि सों सब, सैल ढाहत। त्यों ससि सूर सितारन सागर, हूँ उर पीर की ज्वालिका दाहत॥ घन प्रेम प्रभाय महान, वियोग को बेग कहा को सराहत। ए सी उनई अंखिया, असुवान हीं सों जग बोरिबो चाहत॥ ano घन सी वा दिन अकेली जो नवेली मिली कुंज में, मोह्यौ तुम बाँसुरी बजाय मीठे सुर सों। प्रेमघन प्रेम दरसाय रस बरसाय, मन्द मुसक्याय के लगाई जाहि उर सों। नित मिलिबे की आस दै के सुधहू ना लई, मरन चाहत अब सो विरह ज्वर सों। मीत मन मोहन के मिलै मन मोहन तौ, टेरि कहि दीजै इती बात वा निठुर सों। बादिहि बढ़ाओ बकवादिहि छुटै ना प्रीति, चन्द की चकोर और सुमन मलिन्द की।