पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/२५२

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- २२१ - जनु जाल मैं जाय परी सफरी, सी परी उघरै सजी सेज परी॥ भूलत सकल काम धाम त्यों अराम सबै, आठो जाम काम रहि जात एक ओही सो। राम की दुहाई भूख प्यास हूँ हराम होत, अपने बिगाने लखि पात बटोही सों। कही नहीं आवै यह प्रेम की कहानी मोहि, जान परी प्रेमघन हाय दिन दो ही सों। लोक लाज त्यागि जात सबै भय भागि जात, जब मन लागि जात काहू निरमोही सों॥ सोहत सिंदूर भरी मांग ते मरु कैबचि, अलकावली के जाल जाय उरझानो जात। मन्द मुसक्यानि औ मधुर बतरानि पर, मोहि २ मानो विना मोलहि विचानो जात॥ प्रेमघन उरज उतंग के कँगूरन सों, गिरि त्रिबलीन के तरंग अकुलानो जात । हेरनि तिहारी हरिनी के दृगवारी हाय, हेरत ही हेरत सु मो मन हिरानो जात ॥ मोर के मुकुट की लटक अटक्यो कै आह, अलकावली के जाल जाय उरझाय गो। अरविन्द आनन बस्यो कै चोखे चखनि, चितौन भय आय बन वरुनी समाय गो॥ प्रेमघन मुसक्यानि माधुरी पग्यो धौं बलि, पाय तो बताय वाकी कौन छबि छाय गो। हेरी हरिनी के दृगवासी हरि नीके हेरि, हेरत ही हेरत सु मो मन हिराय गो॥