पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३३

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भरत आह नाले कोउ मोहत वाह वाह करि।
कोऊ तन्मय होत ईस के रंग हियो भरि॥३६॥
यह बिचित्रता इतहिं दया करि ईस दिखावत।
बिकट बिरुद्ध बिधान बीच गुल अजब खिलावत॥३७॥
रहत सदा सद्धर्म परायण लोग न्याय रत।
काम क्रोध अरु मोह, लोभ सों बचत बचावत॥३८॥
यथा लाभ सन्तुष्ट, अधिक उद्योग न भावत।
बहु धन मान, बड़ाई के हित, चित न चलावत॥३९॥
सदा ज्ञान वैराग्य योग की होत वारता।
ईस भक्ति में निरत, सबन के हिय उदारता॥४०॥
"अहै दोष बिन ईश एक" यह सत्य कहावत।।
तासों जो कछु दोष इतै लखिबे मैं आवत॥४१॥
सो सम्प्रति प्रचलित जग की गति ओर निहारे।
सौ सौ कुशल इतै लखियत मन माहिं बिचारे॥४२॥
मर्यादा प्राचीन अजहुँ जहँ बिशद बिराजति।
मिलि सभ्यता नवीन सहित सीमा छबि छाजति॥४३॥
जित सामाजिक संस्कार नहिं अधिक प्रबल बनि।
सत्य सनातन धर्म मूल आचार सकत हनि॥४४॥
जित अँगरेजी सिच्छा नहिं संस्कृत-हिदबावति।
वाकी महिमा मेटि कुमति निज नहिं उपजावति॥४५॥
पर उपकार बित्त सों, बाहर होत जहाँ पर।
जहँ सज्जन सत्कार यथोचित लहत निरन्तर॥४६॥
जहाँ आर्य्यता अजहुँ सहित अभिमान दिखाती।
जहाँ धर्म रुचि मोहत मन अजहूँ मुसकाती॥४७॥
जहँ बिनम्रता, सत्य, शीलता, क्षमा, दया संग!
कुल परम्परागत बहुधा लखि परत सोई ढंग॥४८॥
स्वाध्याय, तप निरत जहाँ जन अजहुँ लखाहीं।
बहु सद्धर्म परायन जस कहुँ बिरल सुनाहीं ॥४९॥