पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३५२

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बरसाने वारी सहित, बरसत रसहिँ अथोर।
हिय अम्बर अरु प्रेमघन, लखि नाचय मन मोर॥१०॥
सुभग श्याम घन कीजिये, कृपा बारि बरसात।
हँसि हेरौ हिय हरित धन, प्रेम शस्य लहरात॥११॥
राधा रानी दामिनी, सहित श्याम धन श्याम।
बरसहु रस निज प्रेमघन, हिय हरषहु अभिराम॥१२॥
अलख अनादि अनन्त अरु, निर्विकार निर्द्वन्द।
जग निवास जग जनक जय, जयति सच्चिदानन्द॥१३॥
जय रस बरसन प्रेमघन, परम प्रेम अभिराम।
राधा रानी मुख कमल, मधुकर सुन्दर श्याम॥१४॥
जय जय नव घनश्याम दुति, धारी तन घनश्याम।
जय २ नट नागर सकल, गुन आगर सुख धाम॥१५॥
जै जय २ वृजचन्द जै, राधा बदन चकोर।
जय ३ वृजराज वृज, चन्द मुखिन चित चोर॥१६॥
जोहत जोगादिक यतन, करि जब जाहि अथोर।
लहि छाया घनश्याम तब, नाचत मुनि मन मोर॥१७॥
मोर मुकुट सिर पीतपट, कटि उर वर वन माल।
अधर धरे मुरली सुभग, टेरत सुरन रसाल॥१८॥
कुञ्ज कदंब कलिन्दिजा, कूल केलि अभिराम।
करत हरत मन परस्पर, लखि राजत रति काम॥१९॥
सरस सुरन टेरत रटत, राधा राधा नाम।
प्यारी मुख निरखत किये, चक चकोर अभिराम॥२०॥
या बानक मन मोहनी, सो मन मोहन लाल।
विहरहु मेरे आय मन, मानस मञ्जु मराल॥२१॥
सोहत मन मोहन सदा, बरसत प्रेम अथोर।
जोहि जुगुत जोगादि ज्यहि, नाचत मुनि मन मोर॥२२॥
जरत जवाहिर भूषननि, सारी सजे सुरंग।
गुनन आगरी नागरी, राधा रानी संग॥२३॥