सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/३८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—३५४—

नैन नीर पग धोवैं तौ अति थोर,
लखैं जो तुमरे उपकारन की ओर॥
अहो बंगबासी! बर बिबुध महान,
अहो बम्बईवासी धन गुनवान।
मध्य देश बासी मदरासी मित्र!
गुजराती सिन्धी सब सुजन विचित्र॥
राजस्थानी अरु पंजाबी वीर!
भारत माता के सब सुवन सुधीर॥
पश्चिम उत्तर देसी हम सब दीन,
तथा अवध के वासी हू अति हीन।
सब बिधि तुम सब सों हम पीछे आहिं,
तऊ पाय सँग तुमरो नहिं अकुलाहिं॥
याते भूल जो कछु हमतैं ह्वै जाय,
आय छमैं तेहि गुनि निज छोटे भाय।
चलैं आप आगे हम पीछे लाग,
चलिहैं तुम्हरे पद पर सह अनुराग॥
तन मन धन दै वगि उबारौ देस,
काटहु दुखियन परजन केर कलेस।
मिलि सब दुख अपने की करौ पुकार,
महरानी माता सों बारम्बार॥
बृटिश-प्रजा सों त्यों जो दयानिधान,
अवसि अभय को दैहैं वे सब दान।
करहु यतन उत्साहित विस्वा बीस,
सफल मनोरथ करिहैं तुमरे ईस॥
सादर स्वागत रूप यह कविता को उपहार।
बदरी नारायण समर्पित कीजै स्वीकार॥