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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४०४

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भारत को धन, अन्न और उद्यम व्यापारहिं।
रच्छहु, बृद्धि करहु साँचे उन्नति आधारहिं॥
बरन भेद, मत भेद, न्याय को भेद मिटावहु।
पच्छपात, अन्याय बचे जे तिनहिं निवारहु॥
पूरन मानव आयु लहौ तुम भारत भागनि।
पूरन भारतीन की करत सकल सुख साधनि॥

बरवै


या हित तुम कहँ पुनि यह देहिं असीस।
करै कुँवर तिहि साँची श्री जगदीस॥

सवैया


प्रजा सुखी तेरी रहै लहि वृद्धि समृद्धि बढ़ै सँग राज दराज।
सुकीरति छाय रहै छिति छोर, परै तुव बैरिन के सिर गाज॥
प्रताप अखण्ड रहै 'घनप्रेम' सुनीति परायन मन्त्रि समाज।
सवाँरत भारत को सुभ साज जियो सदा भारत के युवराज॥

योही और भी
हरिगीती


सब द्वीप की विद्या, कला, विज्ञान, इति चलि आवई।
उद्यम निरत आरज प्रजा, रहि सुख समृद्धि बढावई॥
दुष्काल, रोग अनीति नसि, सद्धर्म उन्नति पावई।
भट, बिबुध, अन्न सुरत्न भारत भूमि नित उपजावई॥