पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४११

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—३८५—

सबही उर आज उछाह महा।
सबही अति आनन्द लाहु लहा॥

दोहा


नहि ऐसी सोभा कबहुँ नहिं ऐमो उत्साह।
लखि पायो कोऊ इतै हे भारत नरनाह॥
बैठहु दिल्ली राज सिंहासन पर तुम जाय।
सकल यवन सम्राट गन की सुधि सबहि भुलाय॥
इन्द्र प्रस्थ रह्यो कबहुँ जह बसि कै साहकार।
जग नगरन करि तुच्छ सब सुख सम्पत्ति आगार॥
अलका अरु अमरावती जिहि लखि सकुचि सिहाति।
कुरुख लखत जिहि देवतहु की हिम्मति हहराति॥
राजसूय जहँ पर प्रथम कियो युधिष्ठिर साजि।
भारत जाके निकटही किये बीर बहु गाजि॥
बिबिध बश छत्री किये जहाँ राज-बहु काल।
जाके निकटहिं अन्त अनगपाल भूपाल॥
करि किल्ली ढिल्ली दियो डिल्ली नगर बसाय।
पृथ्वीराज को जहँ महल टूट्यो अजहुँ लखाय॥
हाय! कुटिल जयचन्द्र जिहि नास्यो यवननि टेरि।
जिन बहु नामन सा नगर तोरि बसायो फेरि॥
जिन महम्मद गोरी तथा तुगलक अरु तैमूर।
नादिर अरु चगेज अहमद नास्यो करि चूर॥
मार काट जित मचीही रही कई सत साल।
लूट पाट अन्याय सो भई प्रजा बेहाल॥
स्रोनित सरिता जहँ बही बार अनेक महान।
ललित भूमि जाकी अजहुँ करत जासु गुनगान॥
चहुँ ओरन खडहर कई योजन जितै लखाहिं।
जनु पूरब उत्पात के दुसह दृश्य दरसाहिं॥