पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४१३

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राजभक्त भारत प्रजा की लीजै आसीस।
सपरिवार सुख के सहित जियहु असंख्य बरीस॥
पितामही जिन पिताहू सों जस अधिक पसारि।
हरहु सकल परजान मन तिन सुख साज सँवारि॥
मेरी महरानी अरी मेरी! गुन गन खानि।
अचल सोहाग रहै सदा तेरो जग सुख दानि॥
तेरे अरि हेरे न कहुँ मिल जगत के माहिं।
राज तिहारे बीच दुख प्रजा अनीति हेराहिं॥
मंगल भारत राज सँग मङ्गल भारत राज।
मङ्गलार्य्य भारत प्रजा करै ईस सुभ साज॥

हरिगीती


राजत तिहारे राज पञ्चम जार्ज सब दुख दल टरै।
नित नवल भारत भूमि आर्य्य प्रजान हित सुभ फल फरै॥
जगदीस बनिकै प्रेमघन बरसै दया सुख सर भरै।
मेरी महारानी सहित तेरी सदा रच्छा करै॥

और भी


सब दीप की विद्या, कला, विज्ञान इत चलि आवई।
उद्यम निरत आरज प्रजा रहि सुख समृद्धि बढ़ावई॥
दुषकाल, रोग, अनीति नसि, सद्धर्म उन्नति पावई।
भट, विबुध, अन्न, सुच्छन्द भारत भूमि नित उपजावई॥