पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४१८

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मयङ्क महिमा[१]



"बाहरे तेजिये दिल खामये मिश्कीं मेरा।
दफ़अतन कूक उठा रात को बनकर कोयल॥"
माधव राका निसा रसीली, सजी सेज पर सोता था।
जगा जो मैं गोविन्द नाम, श्रोताजन आलस खोता था॥
पर अद्यापि घड़ी दो रजनी, शेष विशेष सुहाती थी।
मंजु मयंक मरीचि मालिका, मिस मानो मुसकाती थी॥
फबती फैल रही थी चारो, ओर चाँदनी मन भाती।
मानो सुधा सुधाकर से ले, कर बसुधा को नहलाती॥
निखर पड़ा सारा जग जिससे, शोभा नई लखाती थी।
वहीं अटक सी जाती थी यह, दीठ जहाँ पर जाती थी॥
सुधा धवलिमा धवलित हो सब, सौध सदन मन भाते थे।
गुथे गृहावलि मध्य राज पथ, सुन्दर स्वच्छ सुहाते थे॥
बनकर नवल दूलहा बन, बाटिका दूलहिन प्रेम भरा।
लगी लगन प्राचीन लगन, आतेही हर्षित हुआ हरा॥
सूहा जामा पल्लव नवल, मधूक पुंज से वह सोहा।
जोड़ा मुकुल मंजरी सुरंग, समुद्र फलों ने मन मोहा॥
ललित प्रफुल्लित किसुक जाल, पाग पर मौर मनोहर था।
अमिलतास कुसुमावलि मानो, पुष्प राग मणि निर्मित सा॥


  1. इस कविता को प्रेमघन जी ने अपने पौत्र श्री दिनेश उपाध्याय के बाल्यकाल में चन्द्रमा में कालिमा के ऊपर पूछे प्रश्न के ऊपर लिखा है और यही आपकी अन्तिम कविता है।

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