पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/४४०

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फुलवरिया रे-फुलवा विनन ईंग-गईं॥टेक॥
औंचक दीठ परी प्यारे मैं—
बरबस मन लई लई।
पिया प्रेमघन निरखत हीं मैं
सब सुध दई दई॥२३॥

पीलू का खेमटा


गई गिरि हो मोरी नीकी झुलनियां॥टेक॥
नग जड़ली मोतियन सों
साजी रे-बैठि गढ़ाई पी की।
बद्रीनारायन प्यारे की रे—
बीर लुभावनि जी की॥२४॥

दरकि गईं मोरी झीनी चुनरिया॥टेक॥
यह चुनरी मोरे जिय सों प्यारी रे—
प्रेमिन मन हर लीनी चुनरिया।
अब कह कैसी करूँ मोरी आली री,
बद्रीनाथ की दीनी चुनरिया॥२५॥

हक नाहक कुञ्जन आज गई घर हाथ लई॥टेक॥
देखत ही सुध बुध सब भूली,
भली भूल यह आज भई री।
बाँकी बनक माधुरी मूरत,
अलबेली सब चाल नई री॥२६

राग गौरी
सवलिया रे तू तो भयो मीत मोर॥टेक॥
कहर करत निस वासर डोलत बाँके भौंह मरोर॥