सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—४९५—

खेलत सुक जनु ससि की गोद हरखि, छबि तूलै हो झूल॰।
बिकसे बारिज पैं कै कलित, कुन्द फबि फूलै हो झूलनियां॥
झूम झूमि के चूमत अधर, माधुरी मूलै हो झूलनियां।
बरसत मनहुं प्रेमघन सुधा बुन्द नहिं भूलै हो झूल॰॥४९॥

गोबर्धन धारण


डगमगात गिर, गिरै न हाय! देख! गिरधारी रे साँवलिया॥
थरथरात हिय समझत भार, लागै डर भारी रे साँवलिया।
बीते सात रात दिन अबतौ, बरसत बारी रे साँवलिया।
गोबरधन धरि कर पर राख्यो, तू बनवारी रे साँवलिया।
धन्य २ भाई गोपी सुधि, सकल बिसारी रे साँवलिया।
चूमत स्याम स्याम की बहियां, करि रतनारी रे साँवलिया।
धन्य जसोमति जिन तोहि जायो, जग हितकारी ले साँव॰।
नन्द जसोमति मिलि मींजत भुज, सुतहि दुलारी रे साँव॰।
चिरजीवो प्यारे तुम ब्रज के, बिपति बिदारी रे साँवलिया।
बाधा हरनि हरहु की भाखत, राधा प्यारी रे साँवलिया।
पीर तिहारी सहि न जात अब, मीत मुरारी रे साँवलिया।
बुन्द न परत देखि बृज सुर पति, भागे हारी रे साँवलिया।
जय जय जयति प्रेमघन सुरगन, हरखि उचारी रे साँ॰॥५०॥

नवीन संशोधन


नेक नजर कर नेक निहार, आस मोहिं तोरी रे सांवलिया॥
हौं अति नीच, पाप के कीच, फँसी मति मोरी रे साँवलिया॥
निसु दिन काम, क्रोध सों काम, लोभ की खोरी रे साँवलिया॥
तुम कहँ भूलि, विषय की धूलि, सराहि बटोरी रे साँवलिया॥
पाहि! प्रेमघन, पतितन पावन! लखि निज ओरी रे साँवलिया॥५१॥

दूसरी


भूली सुधि बुधि नागर नटकी, लखे लट लटकी रे साँवलिया॥
गोरे गाल, चन्द पर ब्याल, बाल जनु भटकी रे साँवलिया॥