पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/५९४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
—५७२—

उन बिन पल छिन नहीं पड़त चयन,
निस बासर बरसत रहत नयन॥टेक॥
नहि भूलत बाकी छबि जिय सों,
जिहि लखि लखि भाजत लाज मयन॥
निरखत हरत जगत सत मति मति,
दृग मृग मद मतवारे सयन—
मन मोहो श्री बद्री नारायन मीठे २ बोलि बयन॥

दरसन बिन तरसत रहत नयन॥टेक॥
आय लंगर बिच डगर रगर कर कर धर सौप्यो मनहु मयन॥
कहा कहूँ आली बनमाली, मुरली बजाय, मधुर २ सुर सरस

गीत गाय, बद्रीनाथ भावनि बताय बावरी बनाय,
हाय तबहीं सो चित चैन है न॥

आली री! आन चित चुभ गईं माधुरी सी मूरतिया—
काली काली अलकावलि व्याली सी बस डस गई मन मेरो,
कहा कहूँ हाय अब कल न परत है (आनचित)॥टेक॥
श्री बद्री नारायन जू पिय अब नहि दरस दिखावे;
कल न परत छन, धीर न धरत मन (आनचित)

दिना दस के जोबनवाँ हैं मेहमान—हो जनि जान अजान॥टेक॥
चार दिना की चमक चांदनी—तापै कहा इतरान॥
स्याम सघन घन घिरन जात वा दामिनि दुति दरसान॥
श्रीबद्रीनारायन से बुध जन को यह अनुमान॥

पगरिया तोरी सूही रंगाऊं॥टेक॥
मैं हूँ सूही चुनर महिन् रंग रंग मिलाऊं॥
जयपुर से रंगवाऊ ढूँढ़कर ढाखे से मंगवाऊं॥
पाग बांध मुख चूमूँ प्यारे जिय की कलक मिटाऊं॥
श्रीबदरीनारायन दिलबर तुझको बांका छयल बनाऊं॥