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पृष्ठ:प्रेमघन सर्वस्व भाग 1.djvu/६८

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-३९-

न्याय मोलवी साहब ढिग जब बैठत याको।
अपराधी ता कहँ सब कहत, दोष नहिं जाको॥४९९॥
न्याय न जब करि सकत मोलवी गहि शिशुगन सब।
सटकावत सुटकुनी खूब सबकी पीठन तब॥५००॥

फागुन और फाग

फागुन तौ बालक विनोद हित अहै उजागर।
ज्यों ज्यों होली निकट होत अधिकात अधिकतर॥५०१॥
सजत पिचुक्का अरु पिचकारी तथा रचत रंग।
नर नारिन मैं ताहि चलावत बालक गन संग॥५०२॥
गावत और बजावत बीतत समय सबै तब॥
भाँति भाँति के स्वांग बनावत मिलि बालक सब॥५०३॥
हँसी दिल्लगी गाली रंग गुलाल उड़त भल।
देवर भौजाइन के मध्य सहित बहु छल बल॥५०४॥

वसन्त विहार

ऋतु बसन्त मैं पत्र पुष्प के विविध खिलौने।
आभूषण त्यों रचत छरी अरु छत्र बिछौने॥५०५॥
भाँति भाँति के फल चुनि सब मिलि खात प्रहर्षित।
नव कुसुमित पल्लवित बनन बागन बिहरत नित॥५०६॥
कोऊ काले भौंरन ही हेरै दौरावें।
पकरें भाँति भाँति तितिली कोउ ल्याय सजावें॥५०७॥
ग्रीषम मैं जब चलें बवन्डर भारी भारी।
दौरें हम सब ताके संग बजावत तारी॥५०८॥
पकरत फनगे मुकुलित मंदारन सों आनत।
ताकी कटि मैं कसि २ डोरी बिधि सों बाँधत॥५०९॥
ताहि उड़ावत कोउ मदार फल कोऊ ल्यावै।
गेंद खेल खेलें तिहिसों सब मिलि हरखावें॥५१०॥