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आत्माराम


ये शब्द उसके मुख से निकलते थे; पर उनका धार्मिक भाव कभी उसके अंतःकरण को स्पर्श न करता था? जैसे कि बाजे से राग निकलता है उसी प्रकार उसके मुंँह से वह बोल निकलता था, निरर्थक और प्रभाव-शून्य। तब उसका हृदय-रूपी-वृक्ष पत्र-पल्लव-विहीन था। यह निर्मल वायु उसे गुंजारित न कर सकती थी। पर अब उस वृक्ष में कोपलें और शाखाएँ निकल आयो थीं; इस वायु-प्रवाह से झूम उठा; गुंजित हो गया।

अरुणोदय का समय था। प्रकृति एक अनुरागमय प्रकाश में डूबी हुई थी। उसी समय तोता परों को जोड़े हुए ऊँची डाली से उतरा; जैसे आकाश से कोई तारा टूटे, और आकर पिंजड़े में बैठ गया। महादेव प्रफुल्लित होकर दौड़ा, और पिंजड़े को उठाकर बोला-'आओ आत्माराम, तुमने कष्ट तो बहुत दिया, पर मेरा जीवन भी सफल कर दिया। अब तुम्हें चाँदी के पिंजड़े में रखूँगा, और सोने से मढ़ दूंँगा।' उसके रोम-रोम से परमात्मा के गुणानुवाद की ध्वनि निकलने लगी-प्रभु, तुम कितने दयावान् हो! यह तुम्हारा असीम वात्सल्य है, नहीं तो मुझ जैसा पापी पतित प्राणी कब इस कृपा के योग्य था! इन पवित्र भावों से उसकी आत्मा विह्वल हो गयी। वह अनुरक्त होकर कह उठा-

'सत्त गुरदत्त शिवदत्त दाता,

राम के चरन में चित्त लागा।'

उसने एक हाथ में पिंजड़ा लटकाया, बगल में कलसा दबाया, और घर चला।

( ५ )

महादेव घर पहुँचा, लो अभी कुछ अँधेरा था। रास्ते में एक कुत्ते के सिवा और किसी से भेंट न हुई, और कुत्ते को मोहरों से विशेष प्रेम नहीं होता। उसने कलसे को एक नाँद में छिपा दिया और उसे कोयले से अच्छी तरह ढंँककर अपनी कोठरी में रख आया। जब दिन निकल आया,