सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां.djvu/११५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

११५
प्रेरणा


मोटर आकर रुकी और उसमें से जिले के डिप्टी कमिश्नर उतर पड़े। मैं उस समय केवल एक कुर्त्ता और धोती पहने हुए था। इस वेश में एक हाकिम से मिलते हुए शर्म आ रही थी। डिप्टी कमिश्नर मेरे समीप आये तो मैने झेंपते हुए हाथ बढ़ाया; मगर वह मुझसे हाथ मिलाने के बदले मेरे पैरों की ओर झुके और उन पर सिर रख दिया। मैं कुछ ऐसा सिट-पिटा गया कि मेरे मुँह से एक शब्द भी न निकला। मैं अँगरेजी अच्छी लिखता हूँ; दर्शनशास्त्र का भी आचार्य हूँ, व्याख्यान भो अच्छे दे लेता हूँ, मगर इन गुणों में एक भी श्रद्धा के योग्य नहीं। श्रद्धा तो ज्ञानियों और साधुओं ही के अधिकार की वस्तु है। अगर मैं ब्राह्मण होता, तो एक बात थी। हालाँकि एक सिविलयन का किसी ब्राह्मण के पैरों पर सिर रखना अचिन्तनीय है।

मै अभी इसी विस्मय में पड़ा हुआ था कि डिप्टी कमिश्नर ने सिर उठाया और मेरी तरफ देखकर कहा आपने शायद मुझे पहचाना नहीं।

इतना सुनते ही मेरे स्मृति-नेत्र खुल गये, बोला आपका नाम सूर्यप्रकाश तो नहीं है?

'जी हाँ, मै आपका वही अभागा शिष्य हूँ।'

'बारह-तेरह वर्ष हो गये।'

सूर्यप्रकाश ने मुस्कराकर कहा -- अध्यापक लड़कों को भूल जाते हैं; पर लड़के उन्हें हमेशा याद रखते हैं।


मैने उसी विनोद के भाव से कहा -- तुम जैसे लड़कों को भूलना असम्भव है।

सूर्यप्रकाश ने विनीत स्वर में कहा -- उन्हीं अपराधों को क्षमा कराने के लिए सेवा में आया हूँ। मैं सदैव आपकी खबर लेता रहता था। जब आप इंगलैंड गये, तो मैंने आपके लिए बधाई का पत्र लिखा; पर उसे भेज न सका। जब आप प्रिंसिपल हुए, मैं इंगलैंड जाने को तैयार था। वहाँ