पृष्ठ:प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां.djvu/१२१

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प्रेरणा


ही में अधीर हो उठा और दूसरे ही दिन उसके पास जा पहुंचा। मुझे देखते ही उसके पीले और सूखे हुए चेहरे पर आनन्द की स्फूर्ति झलक पड़ी। मैं दौड़कर उसके गले से लिपट गया। उसकी आँखों में वह दूर दृष्टि और चेहरे पर वह अलौकिक आभा थी, जो मॅडराती हुई मृत्यु की सूचना देती है। मैने आवेश से काँपते हुए स्वर में पूछा--यह तुम्हारी क्या दशा है मोहन? दो ही महीने में यह नौबत पहुँच गयी? मोहन ने सरल मुस्कान के साथ कहा-आप काश्मीर की सैर करने गये थे, मैं आकाश की सैर करने जा रहा हूँ।

'मगर यह दुःख-कहानी कहकर मैं रोना और रुलाना नहीं चाहता। मेरे चले जाने के बाद मोहन इतने परिश्रम से पढ़ने लगा, मानो तपस्या कर रहा हो। उसे यह धुन सवार हो गयी थी कि साल-भर की पढ़ाई दो महीने में समाप्त कर ले और स्कूल खुलने के बाद मुझसे इस श्रम का प्रशंसा-रूपी उपहार प्राप्त करे। मै किस तरह उसकी पीठ ठोकूँगा, शाबाशी दूँगा, अपने मित्रों से बखान करूँगा, इन भावनाओं ने अपने सारे आलोचित उत्साह और तल्लीनता के साथ उसे वशीभूत कर लिया। मामाजी को दफ्तर के कामों से इतना अवकाश कहाँ कि उसके मनोरजन का ध्यान रखें। शायद उसे प्रतिदिन कुछ-न-कुछ पढ़ते देखकर वह दिल में खुश होते थे! उसे खेलते देखकर वह जरूर डाँटते। पढ़ते देखकर भला क्या कहते। फल यह हुआ कि मोहन को हल्का-हल्का ज्वर आने लगा; किन्तु उस दशा में भी उसने पढ़ना न छोड़ा। कुछ और व्यतिक्रम भी हुए, ज्वर का प्रकोप और भी बढ़ा; पर उस दशा में भी ज्वर कुछ हल्का हो जाता तो किताबें देखने लगता था। उसके प्राण मुझ में ही बने रहते थे। ज्वर की दशा में भी नौकरों से पूछता--भैया का पत्र आया? वह कब आयेंगे? इसके सिवा और कोई दूसरी अभिलाषा न थी। अगर मुझे मालूम होता कि मेरी काश्मीर-यात्रा इतनी महंँगी