होती! अंत को यहाँ तक नौबत पहुँची कि खेती केवल मर्यादा रक्षा का साधन-मात्र रह गयी, जीविका का भार मबूरी पर आ पड़ा।
सात वर्ष बीत गये, एक दिन शंकर मजूरी करके लौटा, तो राह में विप्रजी ने टोककर कहा-शंकर, कल आके अपने बीज-बैंग का हिसाब कर ले। तेरे यहाँ साढ़े पाँच मन गेहूँ कबसे बाकी पड़े हुए हैं और तूदे ने का नाम नहीं लेता, हजम करने का मन है क्या?
शंकर ने चकित होकर कहा-मैने तुमसे कब गेहूँ लिये थे जो साढ़े पाँच मन हो गये? तुम भूलते हो, मेरे यहाँ किसी का न छटॉक-भर अनाज है, न एक पैसा उधार।
विप्र-इस नीयत का तो यह फल भोग रहे हो कि खाने को नहीं जुड़ता।
यह कहकर विप्रजी ने उस सवा सेर गेहूँ का जिक्र किया, जो आज के ७ वर्ष पहले शंकर को दिये थे। शंकर सुनकर आवक् रह गया। ईश्वर! मैने इन्हें कितनी बार खलिहानी दी, इन्होंने मेरा कौन-सा काम किया। जब पोथी-पत्रा देखने, साइत-सगुन विचारने द्वार पर आते थे, कुछ-न-कुछ 'दक्षिना' ले ही जाते थे। इतना स्वार्थ! सवा सेर अनाज को अंडे की भाँति सेकर आज यह पिशाच खड़ा कर दिया, जो मुझे निगल जायगा। इतने दिनों में एक बार भी कह देते तो मै गेहूँ तौलकर दे देता, क्या इसी नीयत से चुप सीधे बैठे रहे! बोला-महाराज, नाम लेकर तो मैने उतना अनाज नहीं दिया, पर कई बार खलिहानी में सेर-सेर दो-दो सेर दिया है। अब नाप आज साढ़े पाँच मन माँगते हैं, मै कहाँ से दूँगा!
विप्र-लेखा जौ-जौ! बखसीस सौ-सौ! तुमने जो कुछ दिया होगा, उसका कोई हिसाब नहीं, चाहे एक की जगह चार पंसेरी दे दो। तुम्हारे