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प्रेमचंद की सवश्रेष्ठ कहानियाँ


पंडित जी इतना भी न मानेगे? उसने रुपये लिये और ले जाकर पंडित जी के चरण-कमलो पर अर्पण कर दिये। पंडितजी ने विसि्मत होकर पूछा -- किसी से उधार लिये क्या?

शंकर-- नहीं महाराज, आपके असीस से अबकी मजूरी अच्छी मिली।

व्रिप्र -- लेकिन वह तो ६०) ही है।

शंकर -- हाँ , महाराज, इतने अभी ले लीजिए, बाकी मैं दो-तीन महिने में दे दूँगा, मुझे उरिन कर दीजिए।

विप्र -- उरिन तो जभी होगे जब मेरी कौडी़-कौडी़ चुका दोगे। जाकर मेरे १५) और लाओ।

शंकर -- महाराज , इतनी दया करो, अब साँझ की रोटियों का भी ठिकाना नहीं है, गाँव में हूँ तो कभी दे ही दूँगा।

विप्र -- मैं यह रोग नहीं पालता, न बहुत बातें करनी जानता हूँ। अगर मेरे पूरे रूपये न मिलेगे तो आज से ३।।) सैकडे का ब्याज लगेगा। अपने रूपये चाहे अपने घर में रखो, चाहे मेरे यहाँ छोड जाओ।

शंकर -- अच्छा, जितना लाया हूँ उतना रख लिजिए। मैं जाता हूँ, कही से १५) और लाने की फ़िक्र करता हूँ।

शंकर ने सारा गाँव छान मारा ,मगर किसी ने रूपये न थे, बलि्क इसलिए कि पंडितजी के शिकार को छोड़ने की किसी की हिम्मत न थी।

( ३ )

क्रिया के पश्चात प्रतिक्रिया नैसर्गिक नियम है। शंकर साल भर तक तपस्या करने पर भी जब ऋण से मुक्त होने में सफल न हो सका तो उसका संयम निराशा के रूप में परिणत हो गया। उसने समझ लिया कि जब इतना कष्ट सहने पर भी साल में ६०) से अधिक न जमा