दाँव देकर जाओ। पदाया तो बड़े बहादुर बनके, पदने के बेर क्यों भागे जाते हो?
'तुम दिन भर पदाऔ तो मैं दिन-भर पदता रहूँ!'
'हॉ, तुम्हें दिन-भर पदना पड़ेगा।'
'न खाने जाऊँ न पीने जाऊँ?
'हाँ! मेरा दाँव दिये बिना कहीं नहीं जा सकते।'
'मैं तुम्हारा गुलाम हूँ?
'हाँ, मेरे गुलाम हो।'
'मैं घर जाता हूँ, देखूँ मेरा क्या कर लेते हो!'
'घर कैसे जाओगे, कोई दिल्लगी है। दाँव दिया है, दाँव लेंगे।'
'अच्छा, कल मैंने अमरूद खिलाया था। वह लौटा दो।'
'वह तो पेट में चला गया।'
'निकालो पेट से, तुमने खाया क्यों मेरा अमरूद?'
'अमरूद तुमने दिया, तब मैंने खाया। मैं तुमसे माँगने न गया था।'
'जब तक मेरा अमरूद न दोगे मैं दाँव न दूंँगा।'
मै समझता था, न्याय मेरी ओर है? आखिर मैंने किसी स्वार्थ से ही उसे अमरूद खिलाया होगा। कौन निःस्वार्थ किसी के साथ सलूक करता है। भिक्षा तक तो स्वार्थ के लिए ही देते हैं। जब गया ने अमरूद खाया, तो फिर उसे मुझसे दाँव लेने का क्या अधिकार है? रिशवत देकर तो लोग खून पचा जाते हैं। यह मेरा अमरूद यों ही हजम कर जायगा। अमरूद पैसे के पाँच वाले थे, जो गया के बाप को भी नसीब न होंगे। यह सरासर अन्याय था।
गया ने मुझे अपनी ओर खींचते हुए कहा-मेरा दाँव देकर आओ, अमरूद-समरूद मैं नहीं जानता।
मुझे न्याय का बल था। वह अन्याय पर डटा हुया था। मैं हाय