वह बहुत बेकार था। घर में लॉटरी-टिकट के लिए उसे कौन रुपया देगा और वह माँगे भी तो कैसे। उसने बहुत सोच-विचारकर कहा-क्यों न हम-तुम साझे में टिकट ले लें।
तजवीज मुझे भी पसन्द आयी। मै उन दिनों स्कूल-मास्टर था। बीस रुपये मिलते थे। उसमें बड़ी मुश्किल से गुजर होती थी। दस रुपये का टिकट खरीदना मेरे लिए हाथी खरीदना था। हाँ, एक महीना दूध और घी और जलपान और ऊपर के सारे खर्च तोड़कर पाँच रुपये की गुंजाइश निकल सकती थी। फिर भी जी डरता था। कहीं से कोई बालाई रकम मिल जाय, तो कुछ हिम्मत बढ़े।
विक्रम ने कहा-कहो तो अपनी अँगूठी बेच डालूँ? कह दूँगा, उँगली से फिसल पड़ी।
अँगूठी दस रुपये से कम न थी। उसमें पूरा टिकट आ सकता था, अगर कुछ खर्च किये बिना ही टिकट में आधा-साझा हुआ जाता है, तो क्या बुरा है।
सहसा विक्रम फिर बोला-लेकिन भई, तुम्हें नकद देने पड़ेंगे। मैं पॉच रुपये नकद लिये बगैर साझा न करूँगा।
अब मुझे औचित्य का ध्यान आ गया। बोला-नहीं, यह बुरी बात है, चोरी खुल जायगी, तो शर्मिन्दा होना पड़ेगा, और तुम्हारे साथ मुझ पर भी डाँट पड़ेगी।
आखिर यह तय हुआ कि पुरानी किताबें किसी सेकण्ड हैड किताबों की दुकान पर बेच डाली जाये ओर उस रुपये से टिकट लिया जाय। किताबों से ज्यादा बेजरूरत हमारे पास कोई चीज न थी। हम दोनों साथ ही मैट्रिक पास हुए थे और यह देखकर कि जिन्होंने डिग्रियाँ ली, और आँखें फोड़ी, और घर के रुपये बरबाद किये, वह भी जूतियाँ चटका रहे हैं, हमने वहीं हाल्ट कर दिया। मैं स्कूल मास्टर हो गया और विक्रम मटरगश्त करने लगा।