पृष्ठ:प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां.djvu/५४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

५४
प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ

'जान से हाथ धोना पड़ेगा।'

'कुछ परवाह नहीं। यो भी तो मरना ही है। सोचो, दीवार खुद जाती, तो कितनी जान बच जातीं। इतने भाई यहाँ बन्द हैं। किसी की देह में जान नहीं है। दो-चार दिन और यही हाल रहा, तो सब मर जायँगे।'

'हाँ, यह बात तो है। अच्छा तो लो, फिर मैं भी जोर लगाता हूँ।

मोती ने भी दीवार में उसी जगह सींग मारा। थोड़ी-सी मिट्टी गिरी और हिम्मत बढ़ी। फिर तो वह दीवार में सींग लगाकर इस तरह जोर करने लगा, मानों किसी द्वन्द्वी से लड़ रहा है। आखिर कोई दो घंटे की जोर आजमाई के बाद दीवार ऊपर से लगभग एक हाथ गिर गयी उसने दूनी शक्ति से दूसरा धक्का मारा, तो आधी दीवार गिर पड़ी।

दीवार का गिरना था कि अधमरे-से पड़े हुए सभी जानवर चेत उठे। तीनों घोड़ियाँ सरपट भाग निकलीं। फिर बकरियाँ निकलीं। इसके बाद भैसे भी खिसक गयी; पर गधे अभी तक ज्यों-के-यों खड़े थे।

हीरा ने पूछा-तुम दोनों क्यों नहीं भाग जाते?

एक गधे ने कहा-जो कहीं फिर पकड़ लिये जाय?

'तो क्या हरज है। अभी तो भागने का अवसर है।'

'हमें तो डर लगता है। हम यहीं पड़े रहेंगे।'

आधी रात से ऊपर जा चुकी थी। दोनों गधे अभी तक खड़े सोच रहे थे, भागें या न भागें। और मोती अपने मित्र की रस्सी तोड़ने में लगा हुआ था, जब वह हार गया तो, हीरा ने कहा-तुम जाओ, मुझे मुझे यहीं पड़ा रहने दो। शायद कहीं भेंट हो जाय।

मोती ने आँखों में आँसू लाकर कहा--तुम मुझे इतना स्वार्थी समझते हो हीरा? हम और तुम इतने दिनों एक साथ रहे। आज तुम विपत्ति में पड़ गये, तो मै तुम्हें छोड़कर अलग हो जाऊँ?