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रामलीला


थे, मानों मुझसे जान-पहचान ही नहीं। नकल में भी असल की कुछ-न-कुछ बू आ ही जाती है। भक्तों पर जिनकी निगाह सदा ही तीखी रही है, वह मुझे क्या उबारते? मैं विकल होकर उस बछड़े की भाँति कूदने लगा जिसकी गरदन पर पहली बार जुआ रखा गया हो। कभी लपककर नाले की ओर जाता, कभी किसी सहायक की खोज में पीछे की तरफ दौड़ता पर सब-के-सब अपनी धुन में मस्त थे, मेरी चीख-पुकार किसी के कानों तक न पहुँची। तब से बड़ी-बड़ी विपत्तियाँ झेली; पर उस समय जितना दुःख हुआ, उतना फिर कभी न हुआ।

मैंने निश्चय किया था कि अब रामचन्द्र से कभी न बोलूँगा, न कभी खाने की कोई चीज ही दूंँगा; लेकिन ज्योंही नाले को पार करके वह पुल की ओर से लौटे, मैं दौड़कर विमान पर चढ़ गया, और ऐसा खुश हुआ मानों कोई बात ही न हुई थी।

( २ )

रामलीला समाप्त हो गयी थी। राजगद्दी होने वाली थी; पर न जाने क्यों देर हो रही थी। शायद चन्दा कम वसूल हुआ था। रामचन्द्र की इन दिनों कोई बात भी न पूछता था। न तो घर जाने की छुट्टी मिलती। थी, न भोजन का प्रबन्ध ही होता था। चौधरी साहब के यहाँ से एक सीधा कोई तीन बजे दिन को मिलता था। बाकी सारे दिन कोई पानी को भी न पूछता; लेकिन मेरी श्रद्धा अभी तक ज्यों-की-त्यों थी। मेरी दृष्टि में वह अब भी रामचन्द्र ही थे। घर पर मुझे खाने की जो चीज मिलती, वह लेकर रामचन्द्र को दे पाता। उन्हें खिलाने में मुझे जितना आनन्द मिलता था, उतना खा जाने में कभी न मिलता। कोई मिठाई या फल पाते ही मैं बेतहाशा चौपाल की ओर दौड़ता। अगर रामचन्द्र वहाँ न मिलते, तो उन्हें चारों ओर तलाश करता, और जब तक वह चीज उन्हें न खिला लेता, मुझे चैन न आता था।