मनुष्य-जाति के लिए मनुष्य ही सबसे विकट पहेली है। वह खुद अपनी समझ में नहीं आता। किसी-न-किसी रूप में वह अपनी ही आलोचना किया करता है, अपने ही मन के रहस्य खोला करता है। इसी आलोचना को, इसी रहस्योद्घाटन को और मनुष्य ने जगत् में जो कुछ सत्य और सुन्दर पाया है और पा रहा है उसी को साहित्य कहते हैं। और कहानी या आख्यायिका साहित्य के एक प्रधान अंग है, आज से नहीं, आदि काल से ही। हाँ, आजकल की आख्यायिका में समय की गति और रुचि से बहुत-कुछ अन्तर हो गया हैं। प्राचीन आख्यायिका कुतूहल-प्रधान होती थी, या आध्यात्मविषयक। वर्तमान आख्यायिका साहित्य के दूसरे अंगों की भाँति, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और मनोरहस्य के उद्घाटन को अपना ध्येय समझती है। यह स्वीकार कर लेने में हमें संकोच न होना चाहिए कि उपन्यासों ही की तरह आख्यायिका की कला भी हमने पश्चिम से ली है। मगर पाँच सौ वर्ष पहले यूरोप भी इस कला से अनभिज्ञ था। बड़े-बड़े उच्च कोटि के दार्शनिक तथा ऐतिहासिक उपन्यास लिखे जाते थे; लेकिन छोटी-छोटी कहानियों की ओर किसी का ध्यान न जाता था। हाँ, कुछ परियों और भूतों की कहानियाँ अलबत्ता प्रचलित थीं; किन्तु इसी एक शताब्दी के अन्दर या उससे भी कम में समझिए छोटी कहानियों ने साहित्य के और सभी अंगों पर विजय प्राप्त कर ली है। कोई पत्रिका ऐसी नहीं, जिसमें कहानियों की प्रधानता न हो। यहाँ तक कि कई पत्रिकाओं में केवल कहानियाँ ही दी जाती हैं।
कहानियों के इस प्राबल्य का मुख्य कारण आजकल का जीवनसंग्राम और समयाभाव है। अब वह जमाना नहीं रहा कि हम