पृष्ठ:प्रेमचंद की सर्वश्रेष्ठ कहानियां.djvu/७१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।

७१
बड़े भाई साहब


की वह सुखद हरियाली, हवा के बह हलके हलके झोंके, फुटबाल की वह उछल-कूद, कबड्डी के वह दाँव-घात, वालीबाल की वह तेजी और फुरती मुझे अज्ञात और अनिवार्य रूप से खींच ले जाती और वहाँ जाते ही मै सब कुछ भूल जाता। वह जान-लेवा टाइम-टेबिल, वह आँखफोड़ पुस्तकें किसी की याद न रहती, और फिर भाई साहब को नसीहत और फजीहत का अवसर मिल जाता। मै उनके साये से भागता, उनकी आँखों से दूर रहने की चेष्टा करता, कमरे में इस तरह दबे पाँव आता कि उन्हे खबर न हो! उनकी नजर मेरी ओर उठी और मेरे प्राण निकले। हमेशा सिर पर एक नगी तलवार-सी लटकती मालूम होती। फिर भी जैसे मौत और विपत्ति के बीच में भी आदमी मोह और माया के बन्धम मे जकड़ा रहता है, मै फटकार और घुड़कियाँ खाकर भी खेल-कूद का तिरस्कार न कर सकता।

( २ )

सालाना इम्तहान हुआ। भाई साहब फेल हो गये मै पास हो गया और दरजे में प्रथम आया। मेरे और उनके बीच में केवल दो साल का अन्तर रह गया। जी में आया, भाई साहब को आड़े हाथों आपकी वह घोर तपस्या कहाँ गयी? मुझे देखिए, मजे से खेलता भी रहा और दरजे में अव्वल भी हूँ। लेकिन वह इतने दुःखी और उदास थे कि मुझे उनसे दिली हमदर्दी हुई और उनके घाव पर नमक छिड़कने का विचार ही लज्जास्पद जान पड़ा। हाँ, अब मुझे अपने ऊपर कुछ अभिमान हुआ और आत्माभिमान भी बढ़ा। भाई साहब का वह रोब मुझ पर न रहा। आजादी से खेल कूद में शरीक होने लगा। दिल मजबूत था। अगर उन्होंने फिर मेरी फजीहत की तो साफ कह दूंँगा-आपने अपना खून जलाकर कौन-सा तीर मार लिया। मैं तो खेलते-कूदते दरजे में अव्वल आ गया। जबान से यह हेकड़ी जताने का साहस न होने पर भी मेरे