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बड़े भाई साहब


खुद घर का इन्तजाम करते थे। खर्च पूरा न पड़ता था। करजदार रहते थे। जबसे उनकी माताजी ने प्रबन्ध अपने हाथ में ले लिया है, जैसे घर में लक्ष्मी आ गयी है। तो भाई जान, यह गरूर दिल से निकाल डालो कि तुम मेरे समीप आ गये हो ओर अब स्वतन्त्र हो। मैं (थप्पड़ दिखाकर) इसका प्रयोग भी कर सकता हूँ। जानता हूँ; तुम्हें मेरी बातें जहर लग रही हैं।

मैं उनकी इस नयी युक्ति से नत-मस्तक हो गया। मुझे, आज सचमुच अपनी लघुता का अनुभव हुआ और भाई साहब के प्रति मेरे मन में श्रद्धा उत्पन्न हुई। मैने सजल आँखों से कहा- हरगिज नहीं। आप जो कुछ फरमा रहे हैं, वह बिलकुल सच है और आपको उसके कहने का अधिकार है।

भाई साहब ने मुझे गले लगा लिया और बोले-मैं कनकौए उड़ाने को मना नहीं करता। मेरा जी ललचता है; लेकिन करूँ क्या खुद बेराह चलूँ, तो तुम्हारी रक्षा कैसे करूं? यह कर्तव्य भी तो मेरे सिर है!

संयोग से उसी वक्त एक कटा हुआ कनकौआ हमारे ऊपर से गुजरा। उसकी डोर लटक रही थी। लड़कों का एक गोल पीछे-पीछे दौड़ा चला आता था। भाई साहब लम्बे हैं ही। उछलकर उसकी डोर-पकड़ ली और बेतहाशा होस्टल की तरफ दौड़े। मैं पीछे-पीछे दौड़ रहा था।