बहुत अच्छा किया। यह सब हरामखोर इसी व्यवहार के योग्य हैं।
इसी तरह ईश्वरी एक दिन एक जगह दावत में गया हुआ था। शाम हो गयी; मगर लैम्प न जला। लैम मेज पर रखा हुआ था। दियासलाई भी वहीं थी, लेकिन ईश्वरी खुद कभी लैम्प नहीं जलाता। फिर कुँवर साहब कैसे जलायें? मै झुँझला रहा था। समाचार-पत्र आया रखा हुआ था। जी उधर लगा हुआ था पर लैम्प नदारद। दैवयोग से उसी वक्त मुन्शी रियासत अली आ निकले। मै उन्हीं पर उबल पड़ा, ऐसी फटकार बतायी कि बेचारा उल्लू हो गया--तुम लोगों को इतनी फिक्र भी नहीं कि लैम्प तो जलवा दो! मालूम नहीं, ऐसे कामचोर आदमियों का यहाँ कैसे गुजर होता है। मेरे यहाँ घण्टे-भर निर्वाह न हो। रियासत अली ने काँपते हुए हाथों से लैम्प जला दिया।
वहाँ एक ठाकुर अकसर आया करता था। कुछ मनचला आदमी था। महात्मा गांधी का परम भक्त। मुझे महात्माजी का चेला समझकर मेरा बड़ा लिहाज करता था; पर मुझसे कुछ पूछते संकोच करता था। एक दिन मुझे अकेला देख कर आया और हाथ बाँधकर बोला-सरकार तो गाँधी बाबा के चेले हैं न? लोग कहते हैं कि यहाँ सुराज हो जायगा तो जमींदार न रहेंगे।
मैंने शान जमायी-जमींदारों के रहने की जरूरत ही क्या है? यह लोग गरीबों का खून चूसने के सिवा और क्या करते हैं?
ठाकुर ने फिर पूछा-तो क्यों सरकार, सब जमींदारों की जमीन छीन ली जायगी?
मैंने कहा-बहुत से लोग तो खुशी से दे देंगे। जो लोग खुशी से न देंगे उनकी जमीन छीननी ही पड़ेगी। हम लोग तो तैयार बैठे हुए हैं। ज्योंही स्वराज्य हुआ, अपने सारे इलाके असामियों के नाम हिबा कर देंगे।
मै कुरसी पर पाँव लटकाये बैठा था। ठाकुर मेरे पाँव दबाने लगा।