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लाग-डाँट

दूसरी शंका--पहले दारू पिलाकार पागल बना दिया। लत पड़ी तो पैसे की चाट हुई। इतनी मजूरी किसको मिलती है कि रोटी-कपड़ा भी चले और दारू-शराब भी उड़े। या तो बाल-बच्चों को भूखों मारो या चोरी करो, जूआ खेलो और बेईमानी करो। शराब की दुकान क्या है, हमारी गुलामी का अड्डा है।

चौधरी के उपदेश सुनने के लिए जनता टूटती थी, लोगों को खड़े होने की जगह न मिलती। दिनों-दिन चौधरी का मान बढ़ने लगा; उनके यहाँ पंचायतों की, राष्ट्रोन्नति की चर्चा रहती। जनता को इन बातो से बड़ा आनन्द और उत्साह होता। उनके राजनैतिक ज्ञान की वृद्धि होती। वे अपना गौरव और महत्व समझने लगे, उन्हें अपनी सत्ता का अनुभव होने लगा, निरंकुशता और अन्याय पर अब उनकी त्योरियाँ चढ़ने लगीं। उन्हें स्वतन्त्रता का स्वाद मिला। घर की रुई, घर का सूत, घर का कपड़ा, घर का भोजन, घर की अदालत, न पुलिस का भय, न अमलों की खुशामद, सुख और शान्ति से जीवन व्यतीत करने लगे। कितनों ही ने नशेबाजी छोड़ दी और सद्भावों की एक लहर-सी दौड़ने लगी।

लेकिन भगतजी इतने भाग्यशाली न थे। जनता को दिनो-दिन उनके उपदेशों से अरुचि होती जाती थी। यहाँ तक कि बहुधा उनके श्रोताओं में पटवारी, चौकीदार, मुदर्रिस, और इन्हीं कर्मचारियों के मेली-मित्रों के अतिरिक्त और कोई न होता था। कभी कभी बड़े हाकिम भी आ निकलते और भगतजी का बड़ा आदर-सत्कार करते, जरा देर के लिए भगतजी के आँसू पुँछ जाते, लेकिन क्षण-भर का सम्मान आठों पहर के अपमान की बराबरी कैसे करता! जिधर निकल जाते उधर ही उँगलियाँ उठने लगतीं। कोई कहता खुशामदी टट्टू है, कोई कहता खुफिया पुलिस