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कर्मभूमि:277
 

सहसा जज साहब ने खड़े होकर पंचों को थोड़े शब्दों में इस मुकदमे में अपनी सम्मति देने का आदेश दिया और खुद कुछ कागजों को उलटने-पलटने लगे। पंच लोग पीछे वाले कमरे में जाकर थोड़ी देर बातें करते रहे और लौटकर अपनी सम्मति दे दी। उनके विचार में अभियुक्त निरपराध थी। जज साहब जरा-सा मुस्कराए और कल फैसला सुनाने का वादा करके उठ खड़े हुए।


ग्यारह

सारे शहर में कल के लिए दोनों तरह की तैयारियां होने लगीं-हाय-हाय की भी और वाह- वाह की भी। काली झंडियां भी बनीं और फलों की डालियां भी जमा की गई, पर आशावादी कम थे, निराशावादी ज्यादा। गोरों का खून हुआ है। जज ऐसे मामले में भला क्या इंसाफ करेगा, क्या बचा हुआ है? शान्तिकुमार और सलीम तो खुल्लमखुल्ला कहते फिरते थे कि जज ने फांसी की सजा दे दी। कोई खबर लाता था-फौज की एक पूरी रेजीमेंट कल अदालत में तलब की गई है। कोई फौज तक न जाकर, सशस्त्र पुलिस तक ही रह जाता था। अमरकान्त को फौज के बुलाए जाने का विश्वास था।

दस बजे रात को अमरकान्त सलीम के घर पहुंचा। अभी यहां घंटे ही भर पहले आया था। सलीम ने चिंतित होकर पूछा-कैसे लौट पड़े भाई, क्या कोई नई बात हो गई?

अमर ने कहा-एक बात सूझ गई। मैंने कहा, तुम्हारी राय भी ले लूं। फांसी की सजा पर खामोश रह जाना, तो बुजदिली है। किचलू साहब (जज) को सबक देने की जरूरत होगी; ताकि उन्हें भी मालूम हो जाय कि नौजवान भारत इंसाफ का खून देखकर खामोश नहीं रह सकता। सोशल बायकाट कर दिया जाय। उनके महाराज को मैं रख लूंगा, कोचमैन को रख लेना। बच्चा को पानी भी न मिले। जिधर से निकलें, उधर तालियां बजें।

सलीम ने मुस्कराकर कहा-सोचते-सोचते सोची भी तो वहीं बनियों की बात।

"मगर और कर ही क्या सकते हो?"

"इस बायकाट से क्या होगा? कोतवाली को लिख देगा, बीस महाराज और कोचवान हाजिर कर दिए जाएंगे।"

"दो-चार दिन परेशान तो होंगे हजरत !"

"बिल्कुल फजूल-सी बात है। अगर सबक ही देना है, तो ऐसा सबक दो, जो कुछ दिन हजरत को याद रहे। एक आदमी ठीक कर लिया जाए तो ऐन उस वक्त, जब हजरत फैसला सुनाकर बैठने लगें, एक जूता ऐसे निशाने से चलाए कि उनके मुंह पर लगे।"

अमरकान्त ने कहकहा मारकर कहा-बड़े मसखरे हो यार !

"इसमें मसखरेपन की क्या बात है?"

"तो क्या सचमुच तुम जूते लगवाना चाहते हो?"

"जी हां, और क्या मजाक कर रहा हूं? ऐसा सबक देना चाहता हूं कि फिर हजरत यहां मुंह न दिखा सकें।"