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292:प्रेमचंद रचनावली-5
 


गया। किधर से आ रहे हो? आओ, कमरे में चलो।

दोनों आदमी बगल वाले कमरे में गए। सलीम ने रात को एक गजल कही थी। वही सुनाने आया था। गजल कह लेने के बाद जब तक वह अमर को सुना न ले, उसे चैन न आता था

अमर ने कहा-मगर मैं तारीफ न करूंगा, यह समझ लो !

शर्त तो जब है कि तुम तारीफ न करना चाहो, फिर भी करो :

यही दुनियाए उलफत में, हुआ करता है होने दो।
तुम्हें हंसना मुबारक हो, कोई रोता है रोने दो।

अमर ने झूमकर कहा-लाजवाब शेर है, भई । बनावट नहीं, दिल से कहता हूं। कितनी मजबूरी है- वाह।

सलीम ने दूसरा शेर पढ़ा :

कसम ले लो जो शिकवा हो तुम्हारी बेवफाई का
किए को अपने रोता हूं मुझे जी भर के रोने दो।

अमर–बड़ा दर्दनाक शेर है, रोंगटे खड़े हो गए। जैसे कोई अपनी बीती गा रहा हो। इस तरह सलीम ने पूरी गजल सुनाई और अमर ने झूम-झूमकर सुनी । फिर बातें होने लगीं। अमर ने पठानिन के रूमाल दिखाने शुरू किए।

"एक बुढ़िया रख गई है। गरीब औरत है। जी चाहे दो-चार ले लो।"

सलीम ने रूमालों को देखकर कहा-चीज तो अच्छी है यार, लाओ एक दर्जन लेता जाऊं। किसने बनाए हैं?

"उसी बुढ़िया की एक पोती है।"

"अच्छा, वही तो नहीं, जो एक बार कचहरी में पगली के मुकदमे में गई थी? माशूक तो यार तुमने अच्छा छांटा।"

अमरकान्त ने अपनी सफाई दी-कसम ले लो, जो मैंने उसकी तरफ देखा भी हो ।

"मुझे कसम लेने की जरूरत नहीं । तुम्हें वह मुबारक हो, मैं तुम्हारा रकीब नहीं बनना चाहता। दर्जन रूमाल कितने के हैं?"

"जो मुनासिब समझो दे दो।"

"इसकी कीमत बनाने वाले के ऊपर मुनहसर है। अगर उस हसीना ने बनाए हैं, तो फी रूमाल पांच रुपये। बुढ़िया या किसी और ने बनाए हैं, तो फी रूमाल चार आने।"

"तुम मजाक करते हो। तुम्हें लेना मंजूर नहीं।"

"पहले यह बताओ किसने बनाए हैं?"

"बनाए हैं सकीना ही ने।"

अच्छा उसका नाम सकीना है। तो मैं फी रूमाल पांच रुपये दे दूंगा। शर्त यह कि तुम मुझे उसका घर दिखा दो।"

"हां शौक से; लेकिन तुमने कोई प्रारारत की तो मैं तुम्हारा जानी दुश्मन हो जाऊंगा। अगर हमदर्द बनकर चलना चाहो तो चलो। मैं तो चाहता हूं, उसकी किसी भले आदमी से शादी हो जाए। है कोई तुम्हारी निगाह में ऐसा आदमी? बस, यही समझ लो कि उसकी