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कर्मभूमि:305
 


अदालतों की जरूरत क्या? यह बड़े-बड़े महकमे किसलिए? ऐसा मालूम होता है, गरीबों की लाश नोचने वाले गिद्धों का समूह है। जिसके पास जितनी ही बड़ी डिग्री है, उसका स्वार्थ भी उतना ही बढ़ा हुआ है। मानो लोभ और स्वार्थ ही विद्वता का लक्षण है! गरीबों को रोटियां मयस्सर न हों, कपड़ों को तरसते हों, पर हमारे शिक्षित भाईयों को मोटर चाहिए, बंगला चाहिए, नौकरों की एक पलटन चाहिए। इस संसार को अगर मनुष्य ने रचा है तो अन्यायी है, ईश्वर ने रचा है तो उसे क्या कहें।

यही भावनाएं अमर के अंतस्थल में लहरों की भाति उठती रहती थीं।

वह प्रात:काल उठकर शान्तिकुमार के सेवाश्रम में पहुंच जाता और दोपहर तक वह लड़कों को पढ़ाता रहता। पाठशाला डॉक्टर साहब के बंगले में थी। नौ बजे तक डॉक्टर साहब भी पन्हाते थे। फीस बिल्कुल न ली जाती थी, फिर भी लइके बहुत कम आते थे। सरकारी स्कूलों में जहां फीस और जुर्माने और चंदों की भरमार रहती थी, लड़कों को बैठने की जगह न मिलती थी। यहां कोई झांकता भी न था। मुश्किल से दो-ढाई सौ लड़के आते थे। छोटे-छोटे भोले-भाले निष्कपट बालकों का कैसे स्वाभाविक विकास हो, कैसे वे साहसी, संतापी, सेवाशील नागरिक बन सकें, यही मुख्य उद्देश्य था। सौंदर्य-बोध जो मानव-प्रकृति का प्रधान अंग है, कैसे दूषित वातावरण से अलग रहकर अपनी पूर्णता पाए, संघर्ष की जगह सहानुभूति का विकास के ही, दोनों मित्र यही सोचते रहते थे। उनके पास शिक्षा की कोई बनी बनाई प्रणाली न थी! उद्देश्य को सामने रखकर ही वह साधनों की व्यवस्था करते थे। आदर्श महापुरुषों के चरित्र, सेवा और त्याग की कथाएं, भक्ति और प्रेम के पद, यही शिक्षा के आधार थे। उनके दो सहयोगी और थे। एक आत्मानन्द मंन्यासी थे, जो संग्दर से विरक्त होकर मेवा में जीवन सार्थक करना चाहते थे, दूसरे एक संगीत के आचार्य थे, जिनका नाम था ब्रजनाथ। इन दोनों सहयोगियों के आ जाने से शाला की उपयोगिता बहुत बढ़ गई थी।

एक दिन अमर ने शान्तिकुमार ने कहा--आप उरिर कब तक प्रोफेसरी करते चले जाएंगे? जिस संस्था को हम जड़ से काटना चाहते हैं, उसी से चिमटे रहेंगे तो आपको शोभा नहीं देता!

शान्तिकुमार ने मुस्कराकर कहा- मैं खुद यही सोच रहा हूं भई पर सोचता हूं, रुपये कहां से आएंगे? कुछ खर्च नहीं है, तो भी पांच सौ में तो संदेह है ही नहीं। "इसकी चिंता न कीजिए। कहीं-न-कहीं से रुपये आ ही जाएंगे। फिर रुपये की जरूरत क्या है?"

"मकान का किराया है, लड़कों के लिए किताबें हैं, और बीमों ही खर्च हैं। क्या-क्या गिनाऊ?"

"हम किसी वृक्ष के नीचे तो लड़कों को पढ़ा सकते हैं।"

"तुम आदर्श की धुन में व्यावहारिकता का उल्कुल विचार नहीं करते। कोरा आदर्शवाद खयाली पुलाव है।"

अमर ने चकित होकर कहा - मैं तो समझती था, आप भी आदर्शवादी हैं।

शान्तिकुमार ने मानो इस चोट को ढाल पर रोककर कहा-मेरे आदर्शवाद में व्यावहारिकता का भी स्थान हैं।