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42 : प्रेमचंद रचनावली-5
 


जालपा को नींद आ रही थी, आंखें बंद किए हुए बोली-अब सोने दो भई, सवेरे उठना है।

रमानाथ-अगर तुम्हारी राय हो, तो किसी सर्राफ से वादे पर गहने बनवा लाऊं। इसमें कोई हर्ज तो है नहीं।

जालपा की आंखें खुल गईं। कितना कठोर प्रश्न था। किसी मेहमान से पूछना—कहिए तो आपके लिए भोजन लाऊं, कितनी बड़ी अशिष्टता है। इसका तो यही आशय है कि हम मेहमान को खिलाना नहीं चाहते। रमा को चाहिए था कि चीजें लाकर जालपा के सामने रख देता। उसके बार-बार पूछने पर भी यही कहना चाहिए था कि दाम देकर लाया हूं। तब वह अलबत्ता खुश होती। इस विषय में उसकी सलाह लेना, घाव पर नमक छिड़कना था। रमा की ओर अविश्वास की आंखों से देखकर बोली–मैं तो गहनों के लिए इतनी उत्सुक नहीं हूं।

रमानाथ नहीं, यह बात नहीं, इसमें क्या हर्ज है कि किसी सरफ से चीजें ले लें? धीरे-धीरे उसके रुपये चुका दूंगा।

जालपा ने दृढ़ता से कहा-नहीं, मेरे लिए कर्ज लेने की जरूरत नहीं। मैं वेश्या नहीं हूं कि तुम्हें नोच-खसोटकर अपना रास्ता हूं। मुझे तुम्हारे साथ जीना और मरना है। अगर मुझे सारी उम्र बे-गहनों के रहना पड़े, तो भी मैं कर्ज लेने को न कहूंगी। औरतें गहनों को इतनी भूखी नहीं होती। घर के प्राणियों को संकट में डालकर गहने पहनने वाली दूसरी होंगी। लेकिन तुमने तो पहले कहा था कि जगह बड़ी आमदनी की है, मुझे तो कोई विशेष बचत दिखाई नहीं देती।

रमानाथ-बचत तो जरूर होती और अच्छी होती, लेकिन जब अहलकारों के मारे बचने भी पाए। सब शैतान सिर पर सवार रहते हैं। मुझे पहले न मालूम था कि यहां इतने प्रेतों की पूजा करनी होगी।

जालपा–तो अभी कौन-सी जल्दी है, बनते रहेंगे धीरे-धीरे।

रमानाथ-खैर, तुम्हारी सलाह है, तो एक-आध महीने और चुप रहता हूं। मैं सबसे पहले कंगन बनवाऊंगा।

जालपा ने गदगद होकर कहा-तुम्हारे पास अभी इतने रुपये कंही होंगे?

रमानार्थ-इसका उपाय तो मेरे पास है। तुम्हें कैसा कंगन पसंद है?

जालपा अब अपने कृत्रिम संयम को न निभा सकी। आलमारी में से आभूषणों का सूची पत्र निकालकर रमा को दिखाने लगी। इस समय वह इतनी तत्पर थी, मानो सोना आकर रक्खा हुआ है, सुनार बैठा हुआ है, केवन डिजाइन ही पसंद करना बाकी है। उसने सूची के दो डिजाइन पसंद किए। दोनों वास्तव में बहुत ही सुंदर थे। पर रमा उनको मूल्य देखकर सन्नाटे में आ गया। एक एक हजार का था, दूसरा आठ सौ का।

रमानाथ–ऐसी चीजें तो शायद यहां बन भी न सकें, मगर कल मैं जरा सर्राफ की सैर करूंगा।

जालपा ने पुस्तक बंद करते हुए करुण स्वर में कहा-इतने रुपये न जाने तुम्हारे पास कब तक होंगे? उंह, बनेंगे-बनेंगे, नहीं कौन कोई गहनों के बिना मरा जाता है।

रमा को आज इसी उधेड़बुन में बड़ी रात तक नींद न आई। ये जड़ाऊ कंगन इन गोरी-गोरी कलाइयों पर कितने खिलेंगे। यह मोह-स्वप्न देखते-देखते उसे न जाने कब नींद आ गई।