पृष्ठ:प्रेमचंद रचनावली ५.pdf/४५

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बढ़ा सकते हो। एक सीधा-सा खत लिखना पड़ जाता है, तो बगलें झांकने लगते हो। असली शिक्षा स्कूल छोड़ने के बाद शुरू होती है, और वही हमारे जीवन में काम भी आती है। मैंने तुम्हारे विषय में कुछ ऐसी बातें सुनी हैं, जिनसे मुझे बहुत खेद हुआ है और तुम्हें समझा देना में अपना धर्म समझता हूं। मैं यह हरगिज नहीं चाहता कि मेरे घर में हराम की एक कौड़ी भी आए। मुझे नौकरी करते तीस साल हो गए। चाहता, तो अब तक हजारों रुपये जमा कर लेता, लेकिन मैं कसम खाती हूं कि कभी एक पैसा भी हराम का नहीं लिया। तुममें यह आदत कहां से आ गई, यह मेरी समझ में नहीं आता।

रमा ने बनावटी क्रोध दिखाकर कहा-किसने आपसे कहा है? जरा उसका नाम तो बताइए? मूंछे उखाड़ लें उसकी।

दयानाथ-किसी ने भी कहा हो, इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं। तुम उसकी मूंछे उखाड़ लोगे, इसलिए बताऊंगा नहीं, लेकिन बात सच है या झूठ, मैं इतना ही पूछना चाहता हूं।

रमानाथ-बिल्कुल झूठ!

दयानाथ-बिल्कुल झूठ?

रमानाथ–जी हां, बिल्कुल झूठ।

दयानाथ-तुम दस्तूरी नहीं लेते?

रमीनाथ–दस्तूरी रिश्वत नहीं है, सभी लेते हैं और खुल्लम-खुल्ला लेते हैं। लोग बिना मांगे आप-हो-आप देते हैं, मैं किसी से मांगने नहीं जाता।

दयानाथ–सभी खुल्लम-खुल्ला लेते हैं और लोग बिना मांगे देते हैं, इससे तो रिश्वत की बुराई कम नहीं हो जाती।

रमानाथ-दस्तूरी को बंद कर देना मेरे वश की बात नहीं। मैं खुद न लें, लेकिन चपरासी और मुहर्रिर का हाथ तो नहीं पकड़ सकता। आठ-आठ, नौ-नौ पाने वाले नौकर अगर न लें, तो उनका काम ही नहीं चल सकता। मैं खुद न लें, पर उन्हें नहीं रोक सकता।

दयानाथ ने उदासीन भाव से कहा- मैंने समझा दिया, मानने का अख्तियार तुम्हें है।

यह कहते हुए दयानाथ दफ्तर चले गए। रमा के मन में आया, साफ कह दे, आपने निस्पृह बनकर क्या कर लिया, जो मुझे दोष दे रहे हैं। हमेशा पैसे-पैसे को मुहताज रहे। लड़कों को पढ़ा तक न सके। जूते-कपड़े तक न पहना सके। यह डींग मारना तब शोभा देता, जब कि नीयत भी साफ रहती और जीवन भी सुख से कटती।

रमा घर में गया तो माता ने पूछा- आज कहां चले गए बेटा, तुम्हारे बाबूजी इसी पर बिगड़ रहे थे।

रमानाथ-इस पर तो नहीं बिगड़ रहे थे, हां, उपदेश दे रहे थे कि दस्तूरी मत लिया करो। इससे आत्मा दुर्बल होती है और बदनामी होती है।

जागेश्वरी-तुमने कहा नहीं, आपने बड़ी ईमानदारी की तो कौन-से झंडे गाड़ दिए । सारी जिंदगी पेट पालते रहे।

रमानाथ–कहना तो चाहता था, पर चिढ़ जाते। जैसे आप कौड़ी-कौड़ी को मुहताज रहे, वैसे मुझे भी बनाना चाहते हैं। आपको लेने का शऊर तो है नहीं। जब देखा कि यहां दाल नहीं गलती, तो भगत बन गए। यहां ऐसे घोंघा -बसंत नहीं हैं। बनियों से रुपये ऐंठने के लिए अक्ल चाहिए, दिल्लगी नहीं है । जहां किसी ने भगतपन किया और मैं समझ गया, बुद्धू है। लेने की