कार बड़ा चौंतरा बनाय, मोती हीरे जड़, उसके चारों ओर सपल्लव केले के खंभ लगाय, तिनमें बंदनवार औ भाँति भाँति के फूलो की माला बाँध, आ श्रीकृष्णचंद से कहा। ये सुनतेही प्रसन्न हो सब ब्रज युवतियों को साथ ले जमुना तीर को चले। वहाँ जाय देखें तो चंद्रमंडल से रासमंडल के चौतरे की चमक चौगुनी सोभा दे रही है। उसके चारों ओर रेती चाँदनी सी फैल रही है। सुगंध समेत शीतल मीठी मीठी पौन चल रही है औ एक ओर सघन बन की हरियाली उजाली रात में अधिक छबि ले रही है।
इस समैं को देखतेही सब गोपी नगन हो, उसी स्थान के निकट मानसरोवर नाम एक सरोवर था तिसके तीर जाय मन मानते सुथरे वस्त्र आभूषन पहन, नख सिख से सिंगार कर अच्छे वाजे बीन पखावज आदि सुर बाँध बाँध ले आईं, औं लगी प्रेम मद माती हो सोच संकोच तज श्रीकृष्ण के साथ मिल बजाने, गाने, नाचने। उस समै श्रीगोबिंद गोपियों की मंडली के मध्य ऐसे सुहावने लगते थे जैसे तारामंडल में चंद।
इतनी कथा कह श्रीशुकदेवजी बोले―सुनो महाराज, जब गोपियो ने ज्ञान विवेक छोड़ रास में हरि को मन से बिषई पति कर माना औ अपने आधीन जाना, तब श्रीकृष्णाचंद ने मन से विचारा कि―
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अब मोहि इन अपने बस जान्यौ। पति बिषई सम मनमें आन्यौ॥
भई अझान लाज तजि देह। लपटहि पकरहि कंते सनेह॥
ज्ञान ध्यान मिलकैं बिसरायौ। छाँड़ि जाउँ इनि गर्व बढ़ायौ॥
देखूँ मुझ बिन पीछे बन मैं क्या करती है और कैसे रहती हैं। ऐसे विचार श्रीराधिका को साथ ले श्रीकृष्णचंद अंतरध्यान हुए।