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बात में बनवाय मँगवाय लाय धरी। लोगों ने देखा सुना तो यह चर्चा नगर में फैली कि रुक्मिनी का विवाह श्रीकृष्णचंद से होता था सो दुष्ट रुक्म ने न होने दिया, अब सिसुपाल से होगा।

इतनी कथा सुनाय श्रीशुकदेवजी ने राजा परीक्षित से कहा कि पृथीनाथ, नगर में तो घर घर यह बात हो रही थी औ राज- मंदिर में नारियाँ गाय बजायके रीति भाँति करती थीं, ब्राह्मन वेद पढ़ पढ़ टेहले करवाते थे, ठौर ठौर दुन्दुभी बाजते थे, बार बार सपल्लव केले के खंभ गाड़ गाड़, सोने के कुलस भर भर लोग धरते थे, औ तोरण बंझवारं बाँधते थे और एक ओर नगरनिवास न्यारेही, हाट, बाट, चौहटे, झाड़, बुहार पट से पादते थे। इस भाँति घर और बाहर में धूम मच रही थी कि उसी समै दो चार सखियो ने ज्ञा रुक्मिनी से कहा कि―

तोहि रुक्म सिसुपालहि दई। अब तू रुक्मिनि रानी भई॥
बोली सोच नायकर सीस। मन बच मेरे पन जगदीस॥

इतना कह रुक्मिनी ने अति चिन्ता कर एक ब्राह्मन को बुलाय, हाथ जोड़ उसकी बहुत सी बिनती औ बड़ाई कर, अपना मनोरथ उसे सब सुनायके कहा कि महाराज, मेरा संदेसी द्वारका ले जाओ और द्वारकानाथ को सुनाय उन्हें साथ कर ले आओ, तो मैं तुम्हारा बड़ा गुन मानूँगी औ यह जानूँगी कि तुमने ही दुया कर मुझे श्रीकृष्ण बर दिया।

इतनी बात के सुनतेही वह ब्राह्मन बोला-अच्छा तुम संदेसी कहो मै ले जाऊँगा औ श्रीकृष्णचंद को सुनाऊँगा। कृपानाथ हैं जो कृपा कर मेरे संग आवेगे तो ले आऊँगा। इतना बचन जो ब्राह्मन के मुख से निकला, तोंही रुक्मिनीजी ने एक पाली