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प्रेमाश्रम


भोला--कहिए वह करने को तैयार हूँ। जब तक आप न बतायेंगे पिंड न छोड़ूँगा।

अन्त मे विवश हो कर प्रेमशंकर ने कहा--मुझे कुछ रुपयो की जरूरत है और समझ में नहीं आता कि कौन सा उपाय करूं।

भोला--हजार दो हजार से काम चले तो मेरे पास है, ले लीजिए। ज्यादा की जरूरत हो तो कोई और उपाय करूँ।

प्रेम-हजार दो हजार का तुम क्या प्रबन्ध करोगे? तुम्हारे पास तो है नहीं, किसी से लेने ही पडेगें।

भोला---नही बाबू जी, आपकी दुआ से अब इतने फटेहाल नहीं हूँ। हजार से कुछ ऊपर तो अपने ही है। एक हजार मस्ता में रखने को दिये है। दुर्गा और दमड़ी भी कुछ रुपये रखने को देते थे, पर मैंने नहीं लिये। पराये रुपये घर में रख कर कौन जजाल पाले? कही कुछ हो जाय तो लोग समझे इसने खा लिये होगें।

प्रेम–तुम लोगों के पास इतने रुपये कहाँ से आ गये?

भोला-आप ही ने दिये है, और कहाँ से आये? जवानी की कसम खा कर कहता हूँ कि इधर तीन साल से एक दिन भी कौड़ी हाथ से छुई हो या दारू मुंह से लगायी हो। आप लोगों जैसे भले आदमियों के साथ रह कर ऐसे कुकर्म करता तो कौन मुंह दिखाता? भस्ला के बारे में भी कह सकता हूँ कि इधर दो-ढाई साल से किसी के माल की तरफ आँख उठा कर नहीं देखा। अभी थोड़े ही दिनों की बात है, भवानी सिंह की अटीं से पाँच गिन्नियाँ गिर गयीं थी। मस्सा ने खेत में पड़ी पायी और उसी दिन जा कर उन्हें दे आया। पहले इसी बगीचे से फल-फलारी तोड़ कर बेच लिया करता था पर अब यह सारी आदते छूट गयी। दुर्गा और दमड़ी गाँजा-चरस तो पीते हैं, लेकिन बहुत कम और मैंने उन्हें कोई कुचाल चलते नहीं देखा। हम सभी रोटी, दाल तरकारी खा कर दो-तीन सौ रुपये बचा लेते है। तो कहिए, जितने रुपये मेरे पास है वह लाऊँ?

प्रेम----यह सुन कर मुझे बड़ी खुसी हुई कि तुम लोग भी चार पैसे के आदमी हो गयें। यह सब तुम्हारे सुविचार का फल है। लेकिन मेरा काम इतने रुपये में न चलेगा। मुझे पच्चीस हजार की जरूरत है।

सहसा मायाशंकर आ कर खड़ा हो गया। उसकी आँखें डबडबायी हुई थी और मुंह पर करुण उत्सुकता झलक रहीं थी। प्रेमशंकर ने भोला को आँखो के इशारे से हटा दिया तब माया से बोले- आँखे क्यो भरी हुई है? बैठो।

माया--जीं, कुछ नहीं। अभी तेजू और पद्म की याद आ गयी थी। दोनों अब तक होते तो उन्हें यहीं बुला कर रखता। उस समय मैं बड़ा निर्दयी था। बेचारो को अपना ठाट दिखा कर जलाना चाहता था। मेरी शेखी की बातें सुन-सुन वे भी कहा करते थे, हम वह मन्त्र जगायेंगे कि कोई मार ही न सके। ऐसे-ऐसे मन्त्री को अपने वश में कर लेगे कि घर बैठे संसार की जो वस्तु चाहे मँगा लेंगे! उस वक्त मेरी समझ में वे बाते ने आती थी, दिल्लगी समझता था, पर अब तो उन बातों को याद करता हूँ तो ऐसा मालूम होता है कि मैं ही उनका घातक हूँ। चित्त व्याकुल हो जाता है और अपने